पहली बात को रेखांकित की जानी चाहिए, वह यह है कि जैसा लेखन जयप्रकाश चौकसे का रहा, हिंदी में सिनेमा पर लिखने की वैसी परंपरा कभी रही नहीं थी. उन्होंने यह बताया कि आप सिनेमा को अपने जीवन से जोड़कर देखें और उसकी भव्यता में अंतर्निहित मानवीयता को देखने की कोशिश करें.
समाज में हाल तक, अभी भी एक हद तक, ऐसी प्रवृत्ति है कि सिनेमा साक्षरता को लगभग एक अपराध के रूप देखा जाता रहा है, लेकिन चौकसे जी के लेखन ने एक पूरी पीढ़ी को सिनेमा साक्षर बनाने का प्रयास किया, जो हमारे समाज में एक वर्जना की तरह था. जब आप उन्हें पढ़ने लगते थे, तो उनके संदर्भ, उनकी अंतर्दृष्टि, दार्शनिक दृष्टि और परदे पर जो दिख रहा है, उसके उप-पाठ से परिचित होते जाते थे.
यह सब कहते हुए वे हमें अपने समाज से भी गहरे तक परिचित कराते जाते थे. वे हमेशा यह कहते थे कि वे निष्पक्ष नहीं हैं और कोई भी समीक्षक निष्पक्ष नहीं हो सकता है. लेकिन यह कहा जाना चाहिए कि राजकपूर और सलीम खान, जो उनके निकट मित्र थे, का संदर्भ छोड़ दें, तो यह कोई नहीं कह सकता है कि वे निष्पक्ष नहीं थे.
वे कुछ हालिया दबावों के बावजूद नाराजगी का जोखिम उठाते हुए राजनीतिक टिप्पणियों से भी परहेज नहीं करते थे. मेरा सौभाग्य है कि जब मेरी फिल्म आयी थी, तो उन्होंने शीर्षक में सबसे पहले मेरा नाम लिखा था. लेखक को निर्देशक के समान वे ही ऐसा सम्मान दे सकते है. यह एक सपना साकार होने जैसी बात थी कि उनके स्तंभ में लगातार मेरा उल्लेख आया.
उनके पाठक मुझसे सहमत होंगे कि वे अपने विशिष्ट अंदाज में सिनेमा और समाज के साथ राजनीतिक परिवेश के बारे में भी पाठकों को जागरूक करते थे. उनके लेखन का एक महत्वपूर्ण भाग साहित्य भी रहा. वे निरंतर कविताओं को उद्धृत करते थे. उन्होंने सभी विधाओं को इस तरह आत्मसात किया था कि उनको पढ़ना एक जादुई अनुभव बन जाता था.
कुछ उल्लेखनीय कवि, जैसे निदा फाजली, कुमार अंबुज, मंगलेश डबराल आदि, उनके लेखन में बार-बार आते थे. वे स्वयं अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, तो अंग्रेजी साहित्य के उद्धरण भी खूब दिया करते थे. हमारे सिने-समीक्षकों में ऐसा शायद ही कोई और नाम मिले, जो साहित्य को इस तरह सिनेमा से जोड़ता हो. यह सब करते हुए उनकी भाषा की सरलता और उसके प्रवाह पर प्रभाव नहीं होता था.
कई वर्ष पहले जब मैं भास्कर से जुड़ा था, तो एक बार मैंने तत्कालीन संपादक यशवंत व्यास से पूछा कि अखबार में फिल्म समीक्षा क्यों नहीं छपती. इस पर उन्होंने कहा कि चौकसे जी के स्तंभ का विस्तार ऐसा है कि अलग से फिल्म की समीक्षा प्रकाशित करने का कोई मतलब नहीं है. वे नयी फिल्में भी नियमित रूप से देखते थे और उन पर टिप्पणी करते थे.
उनके स्तंभ में हिंदी ही नहीं, हॉलीवुड और देश-विदेश की अच्छी फिल्मों के उल्लेख होते थे. यह जो लेखन और समझ की समृद्धि है, जयप्रकाश चौकसे के निधन के बाद उसकी भरपाई करना लगभग असंभव होगा. यह बात केवल हिंदी सिनेमा लेखन पर ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी में हो रही समीक्षा के परिवेश पर भी लागू होती है.
जब पिछले सप्ताह उनका अंतिम स्तंभ आया था, तभी से एक अंदेशा मन में था. वे बहुत लंबे समय से बीमार थे और बात करने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए उनसे बातचीत भी नहीं हो पाती थी. उस स्थिति में भी उन्होंने यथासंभव कोशिश की कि स्तंभ नियमित रूप से प्रकाशित हो सके. इससे सिनेमा और लेखन के प्रति उनके समर्पण के साथ पाठकों से गहरे लगाव का परिचय भी मिलता है.
उनकी यह विशिष्टता रही कि वे स्थापित फिल्मकारों, सितारों, रचनाकारों आदि के साथ-साथ उभरती प्रतिभाओं की चर्चा करते रहे. बीते वर्षों में सिनेमा के विषय-वस्तु और प्रस्तुति के ढंग में जो बदलाव आता रहा है, उस पर भी उनकी निगाहें जमी रहीं.