वरिष्ठ लेखक और प्रशासनिक अधिकारी ललित मोहन रयाल ने ‘कारी तु कब्बि ना हारि’ से जो लेखकीय ओज निर्मित किया था, वो उनके ताजा उपन्यास ‘चाकरी चतुरङ्ग’ में भी नजर आता है. रयाल एक ऐेसे रचनाकार हैं जो विधा की संरचनात्मक और रचनात्मक हदबंदियों को लांघते हैं.
रयाल का रचनाकर्म और उनकी तमाम रचनाएं चाहे बात खड़कमाफ़ी की स्मृतियों से, अथश्री प्रयाग कथा, कारी तु कब्बि ना हारि और अब ये चाकरी चतुरङ्ग की करें यह बातें स्पष्टत: दृष्टिगोचर होती हैं.
पाठक अचरज कर सकते हैं कि प्रशासनिक कार्यों में धंसा हुआ एक अधिकारी किस तरह अपनी रचनात्मक सामर्थ्य को न सिर्फ़ संजोए रख पाता है बल्कि उसका ऐसा बहुआयामी और व्यापक फलक पर इस्तेमाल कर लेने में भी सफल रहता है.
चाकरी चतुरङ्ग में उनका ये रचनात्मक और रागात्मक हुनर चार सौ से अधिक पृष्ठों में प्रस्फुटित होता रहता है. लेखक, राग दरबारी जैसी विख्यात पुस्तक के रचयिता श्रीलाल शुक्ल का गहन प्रशंसक और पाठक है. चाकरी चतुरङ्ग में राग दरबारी से आगे का पाठ निर्मित होता नजर आता है.
वहां हास्य-व्यंग्य, कटाक्ष और विडंबना की नयी परतें हैं, तो चाकरी चतुरङ्ग समकालीन राजनीतिक-प्रशासनिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्षय की ओर इंगित करती है और उसे दंतकथाओं, पौराणिक आख्यानों, किस्सों-कहानियों और लोकप्रिय इतिहास के वृत्तांतों में पिरोती हुई एक नयी विंडबना का संसार रचती है.
प्रकट तौर पर वे मंद हास्य या तीक्ष्ण व्यंग्य जैसी घटनाएं दिख सकती हैं लेकिन अपने भीतर एक क्षोभ, एक आक्रोश और एक गहन विडंबना को साथ लिए चलती हैं. यह हेजेमनी का एक ‘आनंदलोक’ है और ललित इस लोक की गाथा कहते दिखते हैं लेकिन असल में इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ेंगे तो वे व्यथा, तक़लीफ़, बेगानेपन और नाइंसाफ़ियों के सिलसिलेवार ब्यौरे हैं.
ये ब्यौरे भर नहीं हैं, ये तहकीकात की एक अंदरूनी शैली से संचालित हैं. अंदरूनी यानी जैसे अपनी ओर ही की गई टॉर्च की रोशनी, जैसे आईने में ख़ुद को देखना और अपने ही अंदर झांकना सरीखा. ललित की इस किताब में इतनी ज़्यादा बतकही, गपें फिज़ूलखर्ची सी दिखती हैं कि एकबारगी लगता है उन्हें किताब लिखने की रौ में इसका संपादन करना भी नहीं सूझा. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि वृत्तांत की चकड़ैत उसकी अंतर्निहित मांग थी. पुस्तक का वो देशकाल, चकड़ैतों का स्टेशन है. उनका ठिकाना है, उनका ठौर, उनका दफ्तर और उनका ऑर्डर है. चकड़ैती उस चाकरी चतुरङ्ग जीवन-शैली की एक छटा है, एक भंगिमा. ललित ने उसे उजागर किया है और वही बताने की कोशिश की है.
लेखक ने सूचित किया है कि इस किताब का शीर्षक, उनके मित्र अमित श्रीवास्तव ने चुना है जो ख़ुद एक ओजस्वी अधिकारी हैं, कलम और विचार के धनी हैं. उनके पास कहन का एक अलग अंदाज़ है और भाषा वहां किसी लालित्य को रचाने से ज़्यादा, एक माध्यम होने से ज़्यादा एक उपक्रम, एक प्रक्रिया, एक गतिविधि जैसी हो जाती है. वो रोज़मर्रा की क्रियात्मक हलचल की भाषा हो उठती है, न कि संज्ञात्मक स्थूलता वाली व्याकरणीय परिपाटी से निढाल भाषा.
ललित मोहन रयाल की यह किताब- चाकरी चतुरङ्ग, एक काल्पनिक समय में प्रशासन और शासन की अंदरूनी तहों, उसके अहातों, गलियारों और भूगोलों पर ड्रोन सदृश मंडराती हुई जो तमाम वृत्तांत दर्ज करती जाती है वे सहसा भाषा, साहित्य और रंग को एक नया अर्थ और नया जीवन दे जाते हैं. सारांशतः नैतिक जर्जरता की ओर इशारा करते हैं. इतना सबकुछ कहती हुई किताब में फिर भी कुछ ऐसा है जो अनकहा रखा गया है. उसकी सही-सही शिनाख़्त ही पाठकीय विवेक और सब्र का इम्तहान है.
समीक्षक : शिव प्रसाद जोशी