उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक नया राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य उभर रहा है. कई वर्षों से चुनावी राजनीति में जो ओबीसी फैक्टर प्रमुखता पाता आया है, वह आज दलित फैक्टर ही नहीं, उग्र हिंदुत्व की राजनीति पर भी हावी हो गया है. उसने हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति को भी कदम पीछे खींचने को मजबूर कर दिया है. दलित वोटों के बहुमत पर एकाधिकार रखनेवाली बसपा भी इसी कारण किनारे होती दिख रही है.
बसपा में बिखराव के बावजूद मायावती उत्तर प्रदेश में एक बड़ी ताकत हैं, किंतु ओबीसी फैक्टर के हावी होने से उनकी दावेदारी कमजोर लग रही हैं. मुख्य चुनावी संग्राम सपा और भाजपा के बीच सिमट गया है और दोनों ही अपना पूरा फोकस ओबीसी वोटों पर किये हुए हैं.
भाजपा सरकार और पार्टी से आधा दर्जन से अधिक मंत्री और विधायक सपा के खेमे में पहुंच गये. इनमें अधिकसंख्य ओबीसी नेता हैं. इसके दो बड़े कारण सामने आ रहे हैं. पहला, ‘राजपूत’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध बढ़ता गुस्सा, जो ब्राह्मण से लेकर ओबीसी मंत्रियों-विधायकों में काफी समय से था. दूसरा कारण है राम मंदिर, काशी विश्वनाथ धाम, गोरक्षा और मुस्लिम-विरोध की मार्फत जिस कट्टर हिंदुत्व की राजनीति को भाजपा ने अपना प्रमुख हथियार बनाया, वह उसके ओबीसी नेता-वर्ग को रास नहीं आ रहा था.
वर्ष 2014 से जिन दलित-ओबीसी जातियों को साथ लेकर भाजपा ने यूपी का किला भेदा, वे हिंदुत्व की हावी होती राजनीति में सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई को कमजोर होता देख रहे थे. मुख्यत: यादव-मुस्लिम आधार वाली जो समाजवादी पार्टी 2017 के चुनाव में गैर-यादव ओबीसी जातियों का समर्थन खो देने के बाद हाशिये पर चली गयी थी, वह एकाएक मजबूती से खड़ी हो गयी. कारण सिर्फ यह कि मौर्य, कुशवाहा, लोध, कुर्मी, राजभर, जैसी जातियों के बड़े नेता भाजपा छोड़कर अखिलेश यादव के साथ आ खड़े हुए.
कुछ ब्राह्मण और दलित नेता भी भाजपा से निकले. पार्टी छोड़ने वाले इन नेताओं ने भाजपा सरकार पर ओबीसी हितों की उपेक्षा करने का आरोप जड़ा. इसी समय मुख्यमंत्री योगी का बयान आया कि ‘लड़ाई अस्सी प्रतिशत बनाम बीस प्रतिशत है.’ इसने इन आरोपों को हवा ही दी.
अप्रत्याशित रूप से भाजपा ओबीसी विरोधी और सिर्फ हिंदुत्व को समर्पित पार्टी दिखायी देने लगी. राज्य से लेकर केंद्र तक के बड़े नेताओं के कान खड़े हुए. भाजपा के प्रमुख ओबीसी चेहरे केशव प्रसाद मौर्य को फिर से सामने किया जा रहा है. हिंदुत्व के आक्रामक चेहरे योगी को तनिक मंद होने को कहा गया और सपा के ओबीसी के हमले की काट के लिए उसके घर में तोड़फोड़ के प्रयास किये गये.
मुलायम की ‘छोटी बहू’ जो पहले से भाजपा में आना चाहती थीं, अचानक महत्वपूर्ण हो गयीं. उन्हें और मुलायम के साढ़ू भाई को तत्काल भाजपा की सदस्यता दिलायी गयी. कहा गया कि अखिलेश स्वयं अपने घर को नहीं संभाल पा रहे, ओबीसी का क्या भला करेंगे. किंतु, यह उस बड़े ओबीसी नुकसान की भरपाई नहीं थी.
भाजपा का ओबीसी-प्रेम थमा नहीं है, यह साबित करने के लिए ओबीसी प्रत्याशियों को वरीयता दी जाने लगी. अब तक घोषित भाजपा प्रत्याशियों की दोनों सूचियों में ओबीसी उम्मीदवारों की भरमार है. जिन ओबीसी उम्मीदवारों के टिकट कटने की आशंका थी, उनकी नाव भी इस बयार में पार हो गयी! पूरे घटनाक्रम में हुआ यह कि पिछड़ों-अति पिछड़ों का दबदबा एकाएक बढ़ गया. सभी दल, विशेष रूप से सपा और भाजपा, पिछड़ों की असल नुमाइंदगी की दावेदारी की प्रतिस्पर्धा करने लगे हैं. योगी जिसे अस्सी बनाम बीस (यानी हिंदू बनाम मुस्लिम) की लड़ाई कह रहे थे, वह पचासी बनाम पंद्रह (बहुजन बनाम अन्य) का संग्राम बन गया है.
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के इतने वर्षों के बाद अति पिछड़ी जातियों में भी सत्ता में अपना हिस्सा या अधिकार पाने की चेतना तेज हुई है. मंडल के तत्काल बाद सिर्फ कुछ प्रभुत्वशाली पिछड़ा वर्ग ने अधिकतम लाभ हासिल किये. अब यह ललक नीचे तक पहुंची है. इसी कारण अति पिछड़ी जातियों के कई नेताओं ने सपा और बसपा से अलग होकर अपने छोटे-छोटे दल बनाये हैं.
ये छोटे दल समय-समय पर बड़े दलों से गठबंधन करके सत्ता में भागीदारी मांगते हैं. भाजपा ने 2014 और 2017 के चुनावों में यूपी की अधिकाधिक सीटें जीतने के लिए इन्हीं छोटे दलों के साथ गठबंधन किया. गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव अनुसूचित जातियों को क्रमश: सपा और बसपा से अलग करके उसने अपने साथ लिया. प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं पिछड़ी जाति का होने को खूब प्रचारित किया था.
आज यूपी में पिछड़ी और दलित जातियों के ये छोटे-छोटे दल या नेता बहुत महत्वपूर्ण हो गये हैं. इनके जातीय वोट पूरी तरह इनके पीछे हैं. ये स्वयं जिताऊ उम्मीदवार तो होते ही हैं, कई अन्य सीटों पर अपने जातीय वोट दिलाने में सक्षम भी. इस बार अखिलेश यादव ने शुरू से ही इन छोटे दलों को साथ लेने की कोशिश की थी.
बीते कुछ सालों में मांगें न मानी जाने के कारण भाजपा से नाराज हुए कुछ ओबीसी दल फौरन सपा के साथ आ गये थे. आज कम से कम आधा दर्जन ऐसे दलों का सपा से गठबंधन है. भाजपा ने कुछ दलों को अभी भी साधे रखा है. इसी तरह मायावती से नाराज कुछ अति दलित जातियों की छोटी-छोटी पार्टियां भाजपा, सपा या अब नये उभरे दलित नेता चंद्र शेखर आजाद के साथ आ गये हैं. वैसे, मायावती के उम्मीदवारों में भी ओबीसी की संख्या काफी है.
भाजपा यूपी में हिंदुत्व के एजेंडे को तनिक पीछे करने या कम से कम उसी की बराबरी पर ओबीसी की राजनीति करने के लिए दवाब में आ गयी है. उसे लगता है कि सवर्ण हिंदू तो कहीं नहीं जायेगा, लेकिन अगर ओबीसी छिटक गया तो बड़ा नुकसान होगा. सपा ने भी अपने को अति पिछड़ा हितैषी दिखाने के लिए अपने मुस्लिम झुकाव को कुछ दबा दिया है. वह ओबीसी प्रेम के साथ ही हिंदू-विरोधी न दिखने की राह पर है. फिलहाल यूपी में ओबीसी सब पर हावी हैं.