कोरोना वायरस के नये वैरिएंट ओमिक्रोन के फैलने की स्थिति में जो सुस्त प्रशासनिक रवैया रहा है, उससे देश को चिंतित होना चाहिए. वास्तव में यह निष्क्रियता जैसा ही है, मानो वायरस को अपनी मनमानी करने की पूरी छूट दे दी गयी हो. यह इसलिए भी बड़े अचरज की बात है क्योंकि भारत के पास महामारी की पहली और दूसरी लहर में भयावह स्थितियों का सामना करने का अनुभव है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 26 नवंबर, 2021 को जारी महामारी के बीच ओमिक्रोन को चिंताजनक वैरिएंट घोषित कर दिया था. यह चेतावनी जारी करने से दो दिन पहले ही संगठन को दक्षिण अफ्रीका से इस वैरिएंट की जानकारी मिली थी. दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिकों ने इस वायरस के दो घातक प्रारंभिक लक्षणों के बारे में बताया था- एक, इसकी संक्रामक क्षमता डेल्टा वैरिएंट से अधिक है और दूसरा, इसमें अन्य वैरिएंट के संक्रमण के बाद आयी या स्थानीय वैक्सीन की खुराक (दोनों खुराक भी) से प्राप्त प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने की शक्ति है.
स्वास्थ्य संगठन द्वारा तुरंत निर्णय लिया जाना ‘सबूत आधारित फैसला’ लेने की प्रक्रिया और भावना का एक उदाहरण है. जल्दी फैसला लेना बहुत अहम था और मौजूद सबूतों को पर्याप्त माना गया. जब किसी समस्या की आशंका पैदा होती है, तब या तो तत्काल कोई फैसला नहीं लिया जाता या उसे अन्य सबूतों के आने तक टाल दिया जाता है या किसी शर्त के साथ निर्णय लिया जाता है या फिर तुरंत कोई ठोस फैसला कर लिया जाता है.
इस मामले में सबूत ही एकमात्र कारक नहीं थे, बल्कि देरी के उल्टे असर का भी संज्ञान लिया गया. हम सबूतों के पर्याप्त होने या न होने पर सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन कोई तुरंत पहल करने की समझ पर सवाल नहीं उठा सकता है क्योंकि ऐसी निर्णायक घोषणा ने सभी देशों को तुरंत कदम उठाने के लिए आगाह किया.
सितंबर के अंत से संक्रमण की नियंत्रित स्थिति से गुजर रहे जापान ने ओमिक्रोन के आयात को रोकने के लिए किसी भी देश से यात्रियों के आने पर पाबंदी लगा दी. लेकिन दो बार वैक्सीन ले चुके एक नामीबियाई कूटनीतिक के जरिये यह वायरस देश के भीतर आ चुका था. जापान ने आने पर लगी पाबंदी तो हटा ली, पर वह नयी लहर रोकने के लिए सभी उपाय कर रहा है, जिनमें बूस्टर खुराक देने का प्रावधान भी है.
वहां की स्थिति पर भारत को नजर रखना चाहिए. भारत में जुलाई के दूसरे सप्ताह से 26 नवंबर तक स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में थी. हम तीसरी लहर का जोखिम उठाने की हालत में नहीं थे. जीवन धीरे-धीरे सामान्य हो रहा था, शैक्षणिक संस्थाएं खुल रही थीं, कुछ राज्यों में चुनाव भी होनेवाले हैं. ऐसे में यह अपेक्षित था कि तीसरी लहर को रोकने के उपाय तुरंत किये जायेंगे, लेकिन नीति-निर्धारकों ने यह रणनीति नहीं अपनायी.
उन्होंने तब कोई निर्णय नहीं लिया. यह बहुत अजीब था और ऐसा लग रहा था कि वे जान-बूझकर तीसरी लहर की आशंका को अनदेखा कर रहे हैं. दूसरे देशों के अनुभवों से साफ था कि भारत में भी तेजी से संक्रमण बढ़ सकता है. डेल्टा की तुलना में ओमिक्रॉन का असर कम है, पर बड़ी संख्या में संक्रमण से बीमारियां निश्चित ही बढ़ेंगी, जिससे सबसे अधिक बुजुर्ग, पहले से बीमार, गर्भवती महिलाएं आदि प्रभावित होंगे. आसन्न लहर से खतरा नहीं होने की अपेक्षा रखने का कोई तुक नहीं था.
आखिर सरकार ने ऐसा क्यों किया, इसके बारे में पहली और दूसरी लहर में अपनायी गयी रणनीतियों से कोई संकेत नहीं मिलता. पहली लहर के समय कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं थी. आपात उपयोग के लिए टीकों को दूसरी लहर से लगभग तीन माह पहले तीन जनवरी, 2021 को मंजूर किया गया. लेकिन वैक्सीन को आगे की चुनौतियों से निपटने के एक उपाय के रूप में पेश करने का कोई प्रयास नहीं दिख रहा था.
वह भी अजीब और निराशाजनक था. टीकाकरण अभियान में पहले हर माह आबादी के एक फीसदी को वैक्सीन दिया जा रहा था, यह गति बाद में बढ़कर दो फीसदी हुई. दूसरी लहर के स्वाभाविक रूप से खत्म होने तक टीकाकरण दर इससे अधिक नहीं हुई. हम इसके लिए पारंपरिक अक्षमता, धीरे-धीरे अभियान चलाने, कुप्रबंधन और अन्य कारकों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं. पर अब ऐसे कारण नहीं होने चाहिए.
हमारे पास ओमिक्रोन के असर को रोकने हेतु जरूरी प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन है. फिर भी वैक्सीन के व्यापक इस्तेमाल के संबंध में 26 नवंबर से 26 दिसंबर तक कुछ नहीं किया गया. बाद में जो पहलें हुईं, वह कमतर थीं और अधिक सांकेतिक थीं. किशोरों के टीकाकरण के साथ अगर हम आबादी के बहुत बड़े हिस्से को टीका दे भी देते हैं, जो किसी ठोस कार्य योजना की अनुपस्थिति में संभव नहीं लग रहा है, तो इससे तीसरी लहर की स्थिति तय नहीं होगी. देर से हुई कोशिशों का संभावित लहर पर कोई असर नहीं होगा, जो आती-जाती रहेगी. हमने वायरस के सामने समर्पण कर दिया है.
साठ साल से अधिक आयु वाले, बीमार लोगों और फ्रंटलाइन वर्करों को बूस्टर डोज देने का फैसला भी देर से लिया गया है. सलाह के अनुरूप और विज्ञान के अनुसार दूसरी और तीसरी खुराक में छह माह का अंतराल देने की बजाय कम से कम नौ माह का फर्क रखना यह बताता है कि सरकार जोखिम के साये में रह रहे लोगों के जीवन और स्वास्थ्य पर तीसरी लहर के असर को कम करने की जल्दी में नहीं है. बिना किसी स्पष्टीकरण या तार्किक आधार के घोषणाएं कर दी गयीं.
घोषणाओं से ऐसा संदेश जाता है कि कुछ किया जा रहा है. लेकिन इस पूरे मामले में एक संकेत यह भी है कि सरकार ओमिक्रोन वैरिएंट से लड़ने तथा इससे हो सकनेवाली परेशानी को कम करने की जल्दी में नहीं है. हम यह पूछ सकते हैं कि क्या हम ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यह वैरिएंट युवाओं, स्वस्थ और साधन संपन्न लोगों को संभवत: कम बीमार बनाता है. क्या हमें बुजुर्गों, बीमारों और कम प्रतिरोधक क्षमता के लोगों की चिंता नहीं है? अगर ऐसा इरादा नहीं है, तो कार्रवाई जल्दी और सोच-समझ कर की जाती.