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खामियों से भरी है भुखमरी रैंकिंग

समय की मांग है कि ऐसी झूठी रपटों का पर्दाफाश किया जाए और विकासशील देश आंकड़ों की बाजीगरी से मुक्त होकर जमीनी हकीकत पेश करें.

जर्मनी की एक संस्था ‘वैल्ट हंगर हाइफ’ द्वारा हाल में प्रकाशित एक रपट के अनुसार, भुखमरी की दृष्टि से 116 देशों की सूची में भारत का स्थान 101वां बताया गया है. इसका अभिप्राय यह है कि भारत पोषण की दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा हुआ है और सिर्फ 15 देश ही उससे पीछे हैं. वैसे इसमें यह भी बताया गया है कि भारत में भुखमरी सूचकांक 2000 के 38.8 से घटता हुआ 2021 में 27.5 तक पहुंच गया है यानी भुखमरी का प्रमाण कम हुआ है.

इस रपट को आधार बना कर सरकार के आलोचक यह कह रहे हैं कि मोदी सरकार की लापरवाही से कोरोना महामारी के दौरान भुखमरी का आपात बढ़ा है. इस रपट में बहुत खामियां हैं, जो इसे सिरे से खारिज करने के लिए पर्याप्त हैं. ऐसा लगता है कि यह संस्था भारत समेत कुछ विकासशील देशों को कुछ निहित स्वार्थों द्वारा बदनाम करने के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है. पहली बात यह है कि भुखमरी सूचकांक में इस्तेमाल आंकड़े कृषि मंत्रालय के आंकड़ों से बिल्कुल मेल नहीं खाते हैं.

भारत में खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य पदार्थों, जैसे- दूध, अंडे, सब्जी, फल, मछली आदि का उत्पादन बढ़ा है. दूध का कुल उत्पादन साल 2000 में मात्र 777 लाख टन था, जो साल 2020 में 2000 लाख टन हो चुका है और हमारा दैनिक प्रति व्यक्ति दूध उत्पादन 394 ग्राम तक पहुंच चुका है. अंडों का कुल उत्पादन साल 2019-20 में 11440 करोड़ प्रति वर्ष रहा, जो साल 2000 में मात्र 3050 करोड़ ही था. सब्जियों, फलों, मांस के साथ दालों और खाद्य तेलों एवं अन्य खाद्य पदार्थों की उपलब्धता अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है. जिन देशों से भारत को पीछे दिखाया गया है, वहां इन खाद्य पदार्थों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता कहीं कम है.

दूसरी बात यह है कि भुखमरी सूचकांक बनाने में प्रयुक्त पद्धति के अनुसार उन्हें एनएसएसओ के खाद्य उपभोग के आंकड़े इस्तेमाल करने होते हैं और दिलचस्प बात यह है कि साल 2011-12 के बाद एनएसएसओ का कोई सर्वेक्षण प्रकाशित ही नहीं हुआ. साल 2015-16 के सर्वेक्षण को गंभीर कमियों के कारण सरकार द्वारा वापस ले लिया गया था. अगर साल 2011-12 के ही आंकड़े के आधार पर साल 2021 का भुखमरी सूचकांक तैयार हुआ है, तो यह हास्यास्पद है.

सबसे बड़ी बात यह है कि यह संस्था खाद्य वस्तुओं के उपभोग के संबंध में स्वयं आंकड़े नहीं जुटाती, बल्कि विश्व खाद्य संगठन द्वारा संकलित आंकड़ों का उपयोग करती है. पूर्व में खाद्य संगठन भारत की एक संस्था राष्ट्रीय पोषण निगरानी बोर्ड पर निर्भर करती रही है, लेकिन बोर्ड का कहना है कि उसने ग्रामीण क्षेत्रों में 2011 और शहरी क्षेत्रों में 2016 के बाद खाद्य पदार्थों के उपभोग का कोई सर्वेक्षण नहीं किया है. ऐसा लगता है कि वैल्ट हंगर हाइफ ने बोर्ड के आंकड़ों की जगह किसी निजी संस्था के कथित ‘गैलोप’ सर्वेक्षण, जिसका कोई सैद्धांतिक औचित्य भी नहीं, का उपयोग किया है.

एक अन्य महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सूचकांक में इस्तेमाल होनेवाले ये संकेतक वास्तव में भूख को मापते हैं? यदि ये संकेतक भूख के परिणाम हैं, तो अमीर लोगों के बच्चे ठिगने और पतले क्यों होने चाहिए? वर्ष 2016 के 16 राज्यों के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के आंकड़ों से पता चलता है कि धनी लोगों (कारों, घरों के मालिक) में भी क्रमशः 17.6 फीसदी और 13.6 फीसदी बच्चे स्टंटिंग और वेस्टिंग से पीड़ित हैं. अधिक वजन और मोटापे (भोजन तक पर्याप्त पहुंच) वाली माताओं में स्टंटिंग (22 फीसदी ) और वेस्टिंग (11.8 फीसदी ) वाले बच्चे होते हैं. इस रपट के अनुसार भी पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर भी घटी है तथा उनमें ठिगनेपन की प्रवृत्ति भी कम हुई है, लेकिन इस रपट में एक विरोधाभास यह है कि जनसंख्या में कुपोषण और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में पतलेपन का प्रमाण बढ़ा है.

हर साल प्रकाशित होनेवाली इस रपट में विभिन्न वर्षों में भुखमरी की तुलना की गयी है, लेकिन यह भी स्वीकार किया गया है कि इस रपट के संकेतक इसी वर्ष तक सीमित हैं यानी इस संबंध में तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि अलग-अलग वर्षों में स्रोत और प्रणाली में अंतर है. इस संस्था के भुखमरी सूचकांक के सूत्र में तीन भाग हैं. एक तिहाई भाग खाद्य उपलब्धता, एक तिहाई भाग पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर और एक तिहाई भाग बच्चों के कुपोषण को दिया गया है.

बच्चों के कुपोषण के दो संकेतक है- पतलापन और ठिगनापन. बच्चों में कुपोषण के संबंध में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा समय-समय पर सर्वेक्षण होता है और वे आंकड़े विश्वसनीय माने जा सकते हैं. इसी प्रकार बच्चों में मृत्यु दर के आंकड़े से भी कोई समस्या नहीं दिखती. लेकिन इनका सही विश्लेषण भी जरूरी है.

भारत में कुपोषण की समस्या लंबे समय से है, लेकिन यह धीरे-धीरे घट रही है. वर्ष 1998-2002 के बीच अपनी आयु से ठिगने बच्चों का अनुपात 54.2 प्रतिशत था, जो 2016-2020 के बीच मात्र 34.7 प्रतिशत रह गया है. विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि बच्चे लंबे हो रहे हैं, इसलिए उनमें पतलापन आ रहा है और यह अच्छा संकेत है. समय की मांग है कि ऐसी झूठी रपटों का पर्दाफाश किया जाए और विकासशील देश आंकड़ों की बाजीगरी से मुक्त होकर जमीनी हकीकत पेश करें.

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