क्या भारतीय नौकरशाही का कुख्यात स्टील ढांचा अब एल्युमिनियम में बदल गया है. मोदी सरकार ने लंबे समय से चले आ रहे विशेषाधिकार को प्रभावहीन कर दिया है और दफ्तरी बाबुओं के चतुर पैंतरों को नाकाम कर रही है. बीते पांच साल से वे नियमित रूप से कार्यालय जा रहे हैं और बैठकों में शामिल हो रहे हैं. हाल में सेवानिवृत्त हुए अधिकारियों की मानें, तो निर्णय लेने की प्रक्रिया का ढांचा तेजी से बदल चुका है.
अब शीर्ष स्तर पर निर्णय लिये जाते हैं और उन्हें लागू करने के लिए नीचे भेजा जाता है. पहले बेपरवाह अधिकारियों को वरिष्ठ स्तर की नियुक्तियों की जानकारी रहती थी, पर अब जब आधी रात को कार्मिक विभाग के वेबसाइट पर नाम घोषित होते हैं, तो उन्हें झटका लगता है. इन दिनों वित्त मंत्री के अगले मुख्य आर्थिक सलाहकार के संभावित नाम को लेकर कयास लगाये जा रहे हैं.
क्या देश की पहली महिला वित्तमंत्री को पहली महिला सलाहकार मिलेंगी? क्या अपने ढंग से फैसले लेनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रेंटवुड संस्थाओं से किसी को लायेंगे या किसी भारतीय अर्थशास्त्री को पसंद करेंगे? इस पद के लिए विज्ञापन जारी हो चुके हैं. सत्ता के गलियारों में जो तीन संभावित नाम चर्चित हैं, उनमें शीर्ष पर डॉ पमी दुआ का नाम है, जो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर हैं. मोदी सरकार ने 2016 में उन्हें रिजर्व बैंक की शक्तिशाली मौद्रिक नीति समिति की पहली महिला सदस्य के रूप में चार वर्षों के लिए नामित किया था.
देश में बढ़ीं वे शायद पहली भरोसेमंद अर्थशास्त्री हैं. दूसरी प्रतिष्ठित देशी अर्थशास्त्री पूनम गुप्ता हैं, जो अभी नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लायड इकोनॉमिक रिसर्च की महानिदेशक हैं. उन्हें हाल में पुनर्गठित सात सदस्यीय प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद का सदस्य बनाया गया है.
हालांकि विदेश में शिक्षित कुछ खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ का नाम उछाला है. पहले के कई आर्थिक सलाहकारों की तरह उनका भी अमेरिकी विद्वानों और कॉरपोरेट जगत से अच्छा जुड़ाव है. सलाहकार पद पर नियुक्ति में उनकी अमेरिकी नागरिकता आड़े आ सकती है. वैसे मौजूदा प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल भी हिंदुत्व अर्थशास्त्र के प्रति प्रतिबद्धता के कारण छुपे रुस्तम साबित हो सकते हैं.
तीन संभावित नामों का निर्णय एक सर्च कमिटी करेगी, जिसकी जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं की गयी है. भावी मुख्य आर्थिक सलाहकार के चयन से आगामी बजट की वैचारिक दिशा इंगित होगी. प्रधानमंत्री मोदी आर्थिक थिंक टैंकों को आखिरकार आकार दे रहे हैं. पिछले माह उन्होंने अपनी आर्थिक सलाहकार परिषद का पुनर्गठन किया है.
आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, यह परिषद एक गैर संवैधानिक, गैर वैधानिक, स्वतंत्र इकाई है, जिसका काम प्रधानमंत्री को आर्थिक मामलों पर सलाह देना है. इससे अपेक्षा की जाती है कि यह आर्थिक वृद्धि को प्रभावित कर सकनेवाले अहम आर्थिक घटनाओं को सरकार की जानकारी में लाये. इस परिषद के प्रमुख विदेश में शिक्षित बिबेक देबरॉय हैं. इससे इंगित होता है कि प्रधानमंत्री मोदी मजबूत कॉरपोरेट रिश्तों वाले बाहरी टेक्नोक्रेट को साथ रखना चाहते हैं ताकि नीतियों को तय करने में उनसे मदद मिल सके. परिषद के सात में से चार सदस्य अभी भी निजी भारतीय और विदेशी वित्तीय, कॉरपोरेट और बैंकिंग संस्थानों में कार्यरत हैं.
पहली नजर में यह सामान्य प्रशासनिक निर्णय लग सकता है, पर गॉसिप में लिप्त नौकरशाही के लिए मोदी की कार्रवाई पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार का नतीजा है. पिछले माह एक अचरज भरे फैसले में संग्रहालय और सांस्कृतिक स्थानों के विकास के सीईओ का पद खत्म कर दिया गया. कैबिनेट की नियुक्ति कमिटी ने इस पद पर बैठे पश्चिम बंगाल कैडर के सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी राघवेंद्र सिंह का इस्तीफा मंजूर कर लिया.
इस पद पर सिंह को तीन साल के लिए लाया गया था. यह अवधि सितंबर, 2022 में पूरी होनेवाली थी. इससे पहले उन्हें वस्त्र मंत्रालय के सचिव पद से सेवानिवृत्त होने के बाद फिर से एक साल के लिए संस्कृति सचिव बनाया गया था. भीतरी सूत्रों के मुताबिक, भाजपा नेतृत्व को भरोसा था कि पूर्व वित्त एवं विदेश मंत्री स्वर्गीय जसवंत सिंह के सहयोगी रहे राघवेंद्र सिंह बंगाल चुनाव में केसरिया पार्टी के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के प्रतीक हो सकते हैं.
उन्होंने विभिन्न संग्रहालयों को बेहतर भी बनाया़ उन्हें दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू संग्रहालय को सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों के संग्रहालय में बदलने का जिम्मा भी दिया गया था. लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा संस्कृति के लिए एक कैबिनेट रैंक और दो राज्य मंत्रियों की नियुक्ति के बाद उन्होंने पाया कि सिंह ने अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं किया है.
नीति आयोग की मौजूदा उपयोगिता में बदलाव की चर्चा भी हो रही है. सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन किया था, जिसका उद्देश्य योजनाओं का जल्दी निर्धारण, व्यापार सुगमता बढ़ाना तथा सहकारी संघवाद के साथ उत्तरदायी शासन की व्यवस्था करना था.
इससे अपेक्षा थी कि यह सभी मुख्यमंत्रियों की भागीदारी से निरंतर बैठकें करेगा. लेकिन बीते छह साल में यह संस्था केवल छह ऐसी बैठकें कर सकी है. सत्ता के गलियारों में ऐसा अहसास है कि नीति आयोग में विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों की प्रक्रिया में सहभागियों के रूप में बाहरी लोगों का वर्चस्व है. संस्था से संबद्ध लोग बातें अधिक और काम कम करते हैं. अधिकारियों के समूहों में आयोग सूचकांक निर्माण समूह के रूप में चर्चित है. इसके द्वारा तमाम चीजों पर जारी सूचकांकों को बनाने की प्रक्रिया रहस्य ही है.
प्रधानमंत्री ने आयोग की गहन समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है. इस साल के शुरू में उन्होंने गुणवत्ता नियंत्रण परिषद के प्रमुख आदिल जैनुलभाई से नीति आयोग की पूरी संरचना और उसके उद्देश्य की समीक्षा कर सुधार सुझाने को कहा था. परिषद के प्रमुख के रूप में उनकी नियुक्ति सितंबर, 2014 में हुई थी. आइआइटी-बंबई और हाॅर्वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़े जैनुलभाई अमेरिकी बहुराष्ट्रीय संस्था मैकिंजी से तीन दशक से अधिक समय से जुड़े रहे. लेकिन नीति आयोग को मौजूदा रूप में बनाये रखने या खत्म करने का फैसला विधानसभा चुनाव के बाद ही होगा.