बाल दिवस के हवाले से एक सवाल पूछना जरूरी है. क्या बचपन सामाजिक नियंत्रण का शिकार होकर रह गया है? घर-परिवार, आस-पड़ोस, पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद और कला-मनोरंजन बच्चों को यथाशीघ्र बड़ा बना देना चाहते हैं. तुलसीदास की चौपाई में हम बचपन का सम्मान सुन कर आह्लादित तो होते हैं, लेकिन उससे प्रेरित नहीं होते. हम सोचते हैं, सूरदास ने बाल गोपाल की स्तुति की है, बालपन की नहीं.
बाल दिवस सरकारी कार्यक्रमों में सिमट कर रह गया है. उपभोक्तावादी संस्कृति में रिश्तों-नातों और भावनाओं के नाम पर विशेष दिवस मनाने की अजीबोगरीब प्रथा बन गयी है. उपहार देकर, फोटो खिंचवा कर और कुछ पंक्तियों में भावनाओं के आंसू बहा कर हम मन का बोझ हल्का कर लेते हैं. सोशल मीडिया के जरिये भावनाएं और संवेदनाएं व्यक्त हो जाती हैं.
सूचना प्रधान समाज में तकनीक की तरह बच्चे और बचपन भी बदल रहे हैं. उनके मां-बाप, शिक्षक, परिजन सब बच्चों से यही उम्मीद करते हैं कि वे जल्दी से बड़े और होशियार हो जाएं. बड़ा होना और प्रगतिशील होना एक ही मान लिया गया है. घर, मोहल्ला और कक्षा में अव्वल रहने का भूत बच्चों की हर गतिविधि पर सवार हो जाता है. साधारण या औसत होना पिछड़ेपन की निशानी समझी जाती है. बस मजे के लिए कविता-कहानी पढ़ना या सुनना अब समय की बर्बादी समझ ली जाती है.
नाचना-गाना, खेलना-कूदना भी वैसे ही गंभीर हो गया है, जैसे गणित और विज्ञान की पढ़ाई. चाहे बाजार हो या सरकार, सब बच्चों को होशियार, काबिल और संस्कारी बना देना चाहते हैं. ऐसा लगता है कि हमें बालसुलभ चंचलता, उत्सुकता और बेपरवाही से बैर है. रंग-बिरंगे विज्ञापनों में जो बालपन दिखता है, वह भी कुछ होशियार वयस्कों के गणितीय और वाणिज्यिक सोच के परिणाम मात्र हैं. बालपन भी बाजारू उत्पाद जैसा लगता है. बच्चा दिखता है, बचपन नहीं.
सब मिल कर यही सुनिश्चित करने में लगे रहते हैं कि बच्चे को उनकी नादानी से छुटकारा मिल जाए. अब नादानी नहीं रहेगी, तो यह खतरा भी नहीं रहेगा कि कोई बच्चा आकर राजा को कह दे कि वो नंगा है! अब राजा तो रहा नहीं, तो भोलेपन के साथ बच्चे माता-पिता या शिक्षकों के दोष की तरफ ही इशारा कर देते हैं. उपनिषदों के युग से ही नचिकेता नामक बच्चे ने अपने पिता को चुनौती देना शुरू कर दिया था. सांसारिक चतुराई से ग्रस्त समाज में बच्चे और उनके बचपने के विरुद्ध वयस्क मानसिकता ने एक जंग छेड़ रखी है.
आज का साहित्य, संगीत और पॉपुलर संस्कृति भी यही दर्शाता है. अव्वल तो ऐसे साहित्यकार और गीतकार ही नहीं, जो बचपन की तह में जाकर कुछ लिखें. जो बच्चों के लिए लिखते भी हैं, वे असल में वयस्क महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लगे रहते हैं. ऐसे में बच्चे जरूरत से ज्यादा स्मार्ट दिखते हैं. बालपन भी उद्योग में सजे-संवरे बुद्धि कौशल से निखरे प्रदर्शन की तरह हो गया है. मुश्किल से कभी-कभार एक-दो फिल्में दिखती हैं, जो शुद्ध रूप से बालपन का जश्न प्रस्तुत करें, लेकिन लगता है कि वह जश्न भी मूलत: वयस्क दर्शकों के मजे के लिए ही बनते हैं.
अब ऐसे में कैसे समझें कि पंडित नेहरू को बच्चों से क्यों इतना प्रेम था? क्यों उन्होंने बच्चों के लिए विशेष सिनेमा प्रभाग बनाया था तथा अनेक सांस्थानिक प्रयोगों को बढ़ावा दिया था, ताकि बालपन को सहेजा जा सके. आधुनिकता के जनक माने जाने वाले पंडित नेहरू को बालपन की बहुत परवाह थी. सिनेमा जैसे आधुनिक माध्यम से भी वे बच्चों को नये-नये किस्से और कल्पनाएं देना चाहते थे. किसी राजनेता से इतना सहज और सरल संबंध बालपन के जरिये ही बन सकता है.
यह वैसा ही था, जैसे घर-परिवार में बुजुर्ग बच्चों के साथ बैठ कर नये- नये किस्से बनाते, सुनाते और उनके बालपन को नये आयाम देते. अपनी ही सीमाओं और बंधनों से बालपन में तो असीम आजादी मिलती है. बालपन की आनंद वाटिका में बिना किसी विशेष उद्देश्य के अजीबो-गरीब खेल भी खेले जाते- ओक्का-बोक्का, घोघो रानी, अक्कड़-बक्कड़ और ना जाने क्या-क्या. सब कुछ आनंद में सराबोर होता है, भारी-भरकम उद्देश्यों में नहीं. जैसे-जैसे सुविधाएं बढ़ीं, सिनेमा के अलावा और माध्यम आ गये.
बालपन को संवारने वाले किस्से, खेल और कला गायब होते गये. जो गायब नहीं हुए, उन्हें समाज की वयस्क मानसिकता ने उद्देश्यों, लक्ष्यों और संस्कारों के नियंत्रण में ले लिया. नाप-तौल कर और जांच-परख कर ही कहानियां-कविताएं सुनी जायेंगी. लक्ष्य को ध्यान में रख कर भाषाएं, कला और खेल सीखे जायेंगे. ऐसे नियंत्रण में बालपन कैसे बचेगा? बच्चे रहेंगे, पर उनकी सरलता, सहजता और स्वतः स्फूर्त समरसता दब जायेगी.
कुल मिलाकर, हम बच्चों से तो प्यार करते हैं, लेकिन उनके बालपन से वैसे ही बचना चाहते हैं, जैसे कोई तानाशाह सवाल करनेवाले नागरिकों से बचने के हथकंडे अपनाता है. ऐसे में इस बाल दिवस पर कितना खास लगता है उर्दू के जाने-माने शायर निदा फाजली का एक लाजवाब शेर- ‘बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो / चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे!’ कैसा होगा हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक संसार जिसमें बच्चे तो होंगे, बचपन नहीं!