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वित्त आयोग और राज्यों की हिस्सेदारी

पंद्रहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है, जब कोविड-19 महामारी के प्रभाव और अर्थव्यवस्था में राज्यों की भूमिका पर काफी पुनर्विचार हुआ है, खासकर स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्रों में.

पंद्रहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है, जब कोविड-19 महामारी के प्रभाव और अर्थव्यवस्था में राज्यों की भूमिका पर काफी पुनर्विचार हुआ है, खासकर स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्रों में. जीएसटी युग में राजकोषीय सद्भाव बनाये रखने के साथ महामारी के बाद राज्यों का बचाव तथा उनके खाता-बही को ठीक बनाये रखने जैसी जिम्मेदारियां थीं.

ऐसे में क्या यह आयोग राज्यों के लिए सही में मददगार सबित हुआ है? केंद्र एवं राज्यों के बीच मौजूद असंतुलन पर भी चर्चा की जरूरत है. राज्य अपने वित्तपोषण के लिए स्वयं के कर राजस्व के बजाय संघ से हस्तांतरण पर अधिक निर्भर हैं. यह संघ और राज्यों के बीच व्यय और राजस्व शक्तियों के असमान आवंटन से उत्पन्न उर्ध्वाधर असंतुलन को दर्शाता है.

हालिया वषों में कई राज्यों में बढ़ता राजकोषीय घाटा उर्ध्वाधर असंतुलन का एक प्रमुख संकेतक रहा है. चौदहवें वित्त आयोग में उर्ध्वाधर हिस्सेदारी 42 फीसदी तय की गयी थी. पंद्रहवें वित्त आयोग में जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश बनने से यह हिस्सा 41 फीसदी तय किया गया. साल 2011-12 में संघ की हिस्सेदारी राजस्व प्राप्ति में 60.6 प्रतिशत थी, जो 2019-20 में बढ़कर 62.5 प्रतिशत हो गयी. इसके विपरीत 2011-12 में संघ की हिस्सेदारी व्यय में 59. 2 प्रतिशत थी, जो 2019-20 में घटकर 51.4 प्रतिशत हो गयी.

अर्थव्यवस्था के किसी विशेष क्षेत्र को आवश्यक वित्तीय प्रोत्साहन देना उप-कर का एक विशिष्ट उद्देश्य है. इसी तरह, अधिभार केवल छोटी अवधि के लिए लगाया जाता है. उप-कर और अधिभार राज्यों के साथ करों के विभाज्य पूल का हिस्सा नहीं होते, सो राज्यों की हिस्सेदारी में और कमी होती जा है. वर्ष 2011-12 से 2019-20 के बीच उप-कर और अधिभार 4.72 गुना बढ़कर 92,537 करोड़ रुपये से 4,36,809 करोड़ रुपये हो गया. इस प्रकार, सकल कर राजस्व के हिस्से में उप-कर और अधिभार का प्रतिशत वर्ष 2011-12 के 10.4 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2019-20 में 20.2 प्रतिशत हो गया.

संघ और राज्य सरकारों ने वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम को सरकार के कर्ज और राजकोषीय घाटे को सीमित करके राजकोषीय स्थिरता के उद्देश्य से अपनाया है. इसके तहत, राजकोषीय विवेक को बनाये रखने के लिए राजकोषीय घाटा सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का तीन प्रतिशत होना चाहिए. महामारी काल में 17 मई, 2020 को केंद्र ने चालू वित्त वर्ष (2020-21) में राज्यों के लिए उधार सीमा तीन प्रतिशत से बढ़ाकर जीएसडीपी का पांच प्रतिशत कर दिया.

पर इस दो प्रतिशत में सिर्फ 0.5 प्रतिशत बिना शर्त का है. यह उन राज्यों पर बड़ा बोझ डालेगा, जो पहले से ही अपनी वित्तीय जरूरतों के बोझ तले दबे हैं. महामारी संकट के कारण राज्यों की उधारी की सीमा को बढ़ाकर 2021-22 में जीएसडीपी का चार प्रतिशत तय की गयी. फिर इसे कम करते हुए 2022-23 में 3.5 प्रतिशत और 2025-26 तक राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन लक्ष्य की तय सीमा तीन प्रतिशत के बराबर कर दी जायेगी. इससे ज्ञात होता है कि वे राज्य, जिन्हें सामाजिक व्यय में वृद्धि के कारण अधिक उधार लेने की आवश्यकता है, उनके लिए कोई छूट नहीं है.

स्थानीय निकायों को अनुदान जारी करने से जुड़ी शर्ते चिंताजनक हैं. ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों को अनुदान आवश्यकता के अनुसार अनुच्छेद 280(3) (बी बी) और (सी) के तहत राशि हस्तांतरित की जाती है. पंद्रहवें वित्त आयोग ने ग्रामीण स्थानीय निकायों के लिए 2.4 लाख करोड़ रुपये, शहरी निकायों के लिए 1.2 लाख करोड़ रुपये और स्थानीय सरकारी निकायों के माध्यम से स्वास्थ्य अनुदान के लिए 70,051 करोड़ रुपये की सिफारिश की है यानी कुल अनुदान का 4.36 लाख करोड़ स्थानीय निकायों के लिए निर्धारित है.

इनके वितरण का मानदंड जनसंख्या और क्षेत्रफल को रखा गया है, जिनका भार 90 और 10 प्रतिशत तय किया गया. इसके अनुसार ग्रामीण और शहरी निकायों के बीच अनुदानों का वितरण 65 और 35 के अनुपात में होना है, लेकिन 60 फीसदी अनुदान के साथ तीन शर्तें भी लगा दी गयी हैं, जो निम्न हैं- एक, मार्च, 2024 तक राज्य वित्त आयोगों का गठन और उनकी सिफारिशों को लागू करना, दो, पिछले वर्ष से पहले के वर्ष के लेखा परीक्षित खातों और पिछले वर्ष के अंतिम खातों को सार्वजनिक डोमेन में रखना तथा तीसरा, शहरी स्थानीय सरकारों के लिए 2021-22 में संपत्ति कर के लिए न्यूनतम दरों की अधिसूचना और उसके बाद जीएसडीपी की तीन साल की औसत वृद्धि दर से मेल खानेवाली वार्षिक वृद्धि.

इन शर्तों के बाद अनुदान पर और भी शर्तें लगायी गयी हैं, जो पानी की आपूर्ति, स्वच्छता और शहरी स्थानीय निकायों के लिए ठोस अपशिष्ट प्रबंधन से जुड़ी हैं. इसका मतलब है कि अनुदान का केवल 40 प्रतिशत ही स्थानीय प्राथमिकताओं के अनुसार खर्च किया जा सकता है. अत: राज्यवार विशिष्ट और स्थानीय जरूरतों को नजरंदाज कर दिया गया है क्योंकि राज्यों को शेष अनुदान का लाभ उठाने के लिए 60 प्रतिशत का अनुपालन पूरा करना होगा और उनकी अपनी आवश्यकताएं कहीं न कहीं उपेक्षित ही रह जायेंगी.

आयोग का क्षैतिज वितरण फॉर्मूला कर प्रयासों को 2.5 प्रतिशत, जनसांख्यिकीय प्रदर्शन को 12.5 प्रतिशत, आय दूरी को 45.0 प्रतिशत, वन और पारिस्थितिकी को 10 प्रतिशत, क्षेत्रफल को 10 प्रतिशत और जनसंख्या को 15 प्रतिशत देता है. पर कई मानक बिहार जैसे राज्यों के लिए उचित नहीं हैं. जनसंख्या के दबाव से ग्रस्त राज्य गलत हस्तांतरण मानदंड, जैसे वन और पारिस्थितिकी, क्षेत्रफल और कर प्रयासों की वजह से 22.5 प्रतिशत घाटा में रहेंगे.

इस विवरण से पता चलता है कि अभूतपूर्व परिस्थितियों का सामना कर पंद्रहवां वित्त आयोग कुछ हद तक ही राज्यों की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम रहा है. इस बार वित्त आयोग शर्तों में ढील दे सकता था और राज्यों को अनुदान आसानी से उपलब्ध करा सकता था. प्रदर्शन के आधार पर अनुदानों को टैग करना राज्यों पर अतिरिक्त बोझ डालता है. अत: संघ, राज्यों और स्थानीय निकायों के बीच सहकारी संघवाद की भावना के साथ मजबूत साझेदारी विकसित करने के लिए सभी राज्यों की जरूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए. विकास संकेतकों के आधार पर विकसित और पिछड़े राज्यों के लिए अलग-अलग हस्तांतरण मानदंड बनाये जाने चाहिए.

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