ग्लासगो के जलवायु शिखर सम्मेलन (सीओपी26) में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘लाइफ’ आंदोलन से जुड़ने की अपील की. उन्होंने लोगों से एकजुट होकर लाइफ स्टाइल फॉर एनवायर्नमेंट (लाइफ) को आगे ले जाने का आग्रह किया. प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर हम रोज जागरूकता के विकल्प को चुन कर आत्म-साक्षात्कार की राह पर आगे बढ़ते हैं, तो पर्यावरण के प्रति हमारी जागरूक जीवन शैली कई क्षेत्रों में क्रांति ला सकती है. सबसे अहम बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2070 तक भारत में नेट-जीरो उत्सर्जन को प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है.
नालंदा विश्वविद्यालय ने सबसे बड़ा नेट-जीरो कैंपस बना कर पहले ही इस दिशा में कदम बढ़ा दिया है. नालंदा विश्वविद्यालय में प्रकृति के साथ सद्भाव हमारी आदतों में शुमार हो चुका है. ज्ञान के इस प्राचीन केंद्र के विध्वंस के आठ शताब्दियों बाद भारतीय संसद के अधिनियम 2010 के तहत विदेश मंत्रालय के तत्वाधान में एक बार फिर एक अग्रणी अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म हुआ. नालंदा विश्वविद्यालय का 455 एकड़ का विशाल परिसर बिहार के राजगीर में पहाड़ियों की सुरम्य तलहटी में स्थित है.
इस परिसर को कार्बन-तटस्थ और शून्य-अपशिष्ट परिसर बनाने के लिए प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के योजना सिद्धांतों के साथ-साथ अत्याधुनिक तकनीकों की भी मदद ली गयी है. विश्वविद्यालय परिसर के निर्माण के दौरान इस बात का खास ख्याल रखा गया कि इसे प्राकृतिक वातावरण और जलवायु परिस्थितियों के अनुरूप डिजाइन किया जाए. साथ ही, वास्तुकला, डिजाइन, निर्माण और सेवाओं के साथ पर्याप्त स्मार्ट ऊर्जा की उपलब्धता की रणनीतियों को भी एकीकृत किया गया है.
नालंदा के नेट-जीरो कैंपस में 80 अकादमिक, प्रशासनिक भवनों और 113 आवासीय भवनों का निर्माण प्राचीन भारतीय स्वदेशी ऊर्जा मॉडल को ध्यान में रखकर किया गया है. इसके तहत बायोगैस, कैविटी वाल, सौर ऊर्जा और ऊर्जा के अन्य प्राकृतिक स्रोतों का भी समावेश किया गया है. इससे न केवल अपव्यय को कम करने में मदद मिली है, बल्कि कार्बन फुटप्रिंट को भी कम किया जा सका है. विश्वविद्यालय परिसर पूरी तरह से नेट-जीरो सिद्धांत पर आधारित है.
परिसर के अंदर पानी की हर बूंद को संरक्षित करने के लिए आधुनिक के साथ-साथ पारंपरिक संसाधनों का भी उपयोग किया जा रहा है. हमने प्राचीन ‘आहर-पाइन’ प्रणाली (5,000 साल पुरानी बाढ़ जल संचयन की एक प्रणाली) को पुनर्जीवित किया है. परिसर में जल प्रबंधन के लिए दो तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है. पहला, प्रकृति से प्राप्त पानी का संरक्षण है और दूसरा, पानी को व्यर्थ होने से बचाना है.
परिसर में जल प्रबंधन के लिए विशेष योजना तैयार की गयी है. परिसर की चारदीवारी से जुड़े ‘पइन’ (जल चैनल) की मदद से बारिश के पानी को ‘आहर’ (‘आ’ का अर्थ है ‘आना’ और ‘हर’ का अर्थ है ‘पकड़ना’) तक पहुंचाया जाता है. राजगीर की पहाड़ियों से निकलनेवाला भारी मात्रा में बारिश का पानी परिसर और आसपास के क्षेत्रों में जमा हो जाता है.
उपयोग किये जा सकनेवाले 80 प्रतिशत पानी को शुद्ध करने के लिए कैंपस के अंदर विकेंद्रीकृत जल उपचार प्रणालियों को भी प्रभावी ढंग से लागू किया जा रहा है. इस पानी को परिसर के बीच में बने चार तालाबों के समूह ‘कमल सागर’ में संरक्षित किया जा रहा है. नालंदा विश्वविद्यालय ने राजगीर में नेकपुर और मेयार गांवों में सात जगहों पर जल संसाधन प्रबंधन के लिए एक एक्यूफर स्टोरेज एंड रिकवरी सिस्टम की भी स्थापना की है. तापमान में कमी और हवा को शुद्ध करने के लिए चुनिंदा औषधीय पौधे भी लगाये गये हैं.
परिसर के अंदर पर्याप्त छाया और सूक्ष्म जलवायु सुधार की व्यवस्था भी बनायी गयी है. पर्यावरण अनुकूल इमारतों को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वहां हमेशा पर्याप्त प्राकृतिक रोशनी मिलती रहे. पर्याप्त ऊर्जा की आपूर्ति के लिए हम स्वदेशी अवधारणाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं. हम इमारतों को ठंडा/गर्म करने के लिए डेसिकेंट इवेपोरेटिव तकनीक का उपयोग कर रहे हैं. थर्मल प्रतिरोध को बढ़ाने के लिए मोटी कैविटी की दीवारों का उपयोग, सामान्य पकायी हुई मिट्टी की ईंटों के बजाय कंप्रेस्ड स्टैबिलाइज्ड अर्थ ब्लॉक्स का उपयोग और स्मार्ट तकनीकों तथा ऑटोमेटेड अप्रोच के उपयोग से हम आत्मनिर्भर बनने में सक्षम हो पाये हैं.
हम परस्पर जुड़ी दुनिया में रहते हैं, जहां निरंतर परिवर्तन होता है. नालंदा में नवीनीकरण का मतलब होता है हमारे अतीत के विचार की ओर लौटते हुए कुछ ऐसा नया बनाना, जो पहले कभी अस्तित्व में था ही नहीं. हम एक समृद्ध विरासत के उत्तराधिकारी हैं. प्राचीन और आधुनिक के बीच तालमेल खोजना ही आज की दुनिया में आगे बढ़ने का रास्ता है. नालंदा विश्व का पहला विश्वविद्यालय और भारत तथा विश्व को जोड़ने वाला सेतु भी था.
यह विचारों और ज्ञान का ऐसा केंद्र था, जहां विभिन्न राष्ट्रों और नस्लों के विद्वान उत्कृष्टता की खोज से एक साथ बंधे थे. इन सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान ने कला, वास्तुकला, संस्कृति, भाषा, चिकित्सा, बौद्ध धर्मशास्त्र, सार्वजनिक स्वास्थ्य और गणित के क्षेत्र में एक अमिट छाप छोड़ी है. नयी सहस्राब्दी में हम खुलेपन और बौद्धिक जिज्ञासा की उसी परंपरा का पालन कर रहे हैं, जिसमें हमारे पास 30 से अधिक देशों के छात्र हैं. सत्यनिष्ठा, कल्पना और नवीनता ही इस ऐतिहासिक विश्वविद्यालय की पुनर्स्थापना के आधार स्तंभ हैं.