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अप्रासंगिक होता जाति समीकरण

पिछड़े वर्ग के होने से मोदी ने चुनावी रिकॉर्ड नहीं बनाया, बल्कि ऐसा एक दृष्टि और लक्ष्य वाले नेता की उनकी छवि की वजह से हुआ.

जाति किसी चुनाव की नियति निर्धारित कर सकती है, उसका परिणाम नहीं. जातिगत गठबंधन, सोशल इंजीनियरिंग और अंध अनुसरण की विश्वसनीयता भारतीय चुनाव के जटिल तत्व हैं. वर्षों से शीर्ष मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक पंडित, दाव-पेंच के माहिर आदि जीत के सूत्र बताने और अनुमान लगाने के लिए प्रशंसित होते रहे हैं. चुनावी बाजार में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के अहम चुनाव को लेकर चमत्कारी तरीके और वैकल्पिक स्थितियों के बारे में बतानेवाले सक्रिय हैं.

राष्ट्रीय राजनीति के भविष्य और उसकी राह तय करने में अपनी प्रासंगिकता के चलते चूंकि उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय चर्चा में ऊपर रहता है, प्रियंका गांधी की अति सक्रियता ने राजनीतिक स्थिति को बदल दिया है. दो अंकों से भी कम वोट शेयर के साथ कांग्रेस राज्य में महत्वपूर्ण कारक नहीं है. फिर भी प्रियंका गांधी को आगामी विधानसभा में संभावित प्रभावकारी के रूप में पेश किया जा रहा है.

उनके प्रशंसक उन्हें ऐसे नेता के रूप में देखते हैं, जो दलित, अल्पसंख्यक और उच्च जातियों जैसे पार्टी के परंपरागत मतों को वापस लाकर कांग्रेस के व्यापक चरित्र को पुनर्स्थापित कर सकती हैं. वे गांधी परिवार को जातिविहीन आदर्श मानते हैं, जबकि अखिलेश यादव, मायावती और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी ऐसे नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए कभी किसी दलित या पिछड़े को मुख्यमंत्री नहीं बनाया. प्रियंका को जातिगत बातचीत को नजरअंदाज करने तथा गठबंधन और कल्याण को मुद्दे के रूप में प्रचारित करने की सीख दी गयी है. हाशिये पर होने के बावजूद कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लगता है कि प्रियंका के होने से प्रदेश में जातिगत ध्रुवीकरण कमतर हो सकता है.

साल 1989 के बाद राज्य में जाति तब मुख्य कारक बना, जब मुलायम सिंह यादव ने जनता दल से नाता तोड़ कर और कांग्रेस का समर्थन लेकर अपनी कुर्सी बचायी थी. उसके बाद पिछड़े नेता कल्याण सिंह भाजपा के निर्विवाद नेता बने. हालांकि जाति की भूमिका रही थी, पर उनकी हैसियत से जनादेश मिल सका था. बाद में इन दोनों की हार भी हुई क्योंकि वे अपना वादा पूरा नहीं कर सके.

साल 2007 में मायावती और बसपा को निर्णायक जीत अकेले जातिगत जनाधार से नहीं मिली थी, बल्कि इसलिए कि उन्हें एक मजबूत नेता के रूप में देखा गया था, जो माफिया पर अंकुश लगा सकती थीं और बेहतर शासन दे सकती थीं. साल 2012 में वे इसलिए नहीं हारीं कि यह मॉडल ध्वस्त हो गया था, बल्कि इसकी वजह थी कि उन्होंने सार्वजनिक धन को स्मारकों और अपनी मूर्तियां बनाने में खर्च कर दिया था.

मायावती को हरा कर जब अखिलेश यादव प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने, तो उसे जाति की जीत नहीं माना गया, बल्कि वह एक असफल नेता की हार थी. अखिलेश को युवा होने, स्वच्छ छवि और आकर्षण का लाभ मिला. पिता मुलायम सिंह उनके पीछे खड़े थे. अखिलेश ने व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं चलायीं और तकनीक को लाये. उन्होंने लखनऊ को आधुनिक शहर बना दिया. फिर भी वे हारे.

पारिवारिक लड़ाइयां और खासकर अन्य समुदायों का भरोसा बनाये रखने में उनकी पार्टी की विफलता उनकी हार की वजह बनीं. अखिलेश 2017 में शक्तिशाली राष्ट्रीय नेता नरेंद्र मोदी और भाजपा से हारे. केसरिया पार्टी को सत्ता इसलिए मिली कि मोदी का व्यक्तित्व जाति समीकरणों पर भारी पड़ा. बिना किसी घोषित मुख्यमंत्री उम्मीदवार के भाजपा को 300 से अधिक सीटें मिलीं.

एक बार फिर सभी योद्धा लड़ाई के लिए तैयार हैं. योगी, अखिलेश और मायावती अलग-अलग जातियों से हैं. फिर भी जनादेश जातिगत पहचान नहीं, काम पर निर्भर करेगा. प्रियंका गांधी महत्वाकांक्षा के चतुष्क को पूरा करनेवाली नेता के रूप में उभरी हैं. योगी का कड़ा रवैया और आक्रामक हिंदुत्व प्रतिद्वंद्वियों के लिए चुनौती है.

कानून-व्यवस्था पर कुछ प्रतिकूल प्रचार के बावजूद उन्होंने कई आर्थिक और सामाजिक सूचकांकों पर उल्लेखनीय काम किया है. उत्तर प्रदेश अब व्यापार सुगमता, कोरोना प्रबंधन और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में अग्रणी राज्यों में है. इस चुनाव में जाति नहीं, मुद्दा चलेगा. अब मतदाता उनके पीछे जायेंगे, जो उन्हें वर्तमान मुख्यमंत्री से बेहतर लगेंगे. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और दिल्ली में वोटरों ने जाति व समुदाय से परे होकर अपने नेता चुने हैं. जाति पश्चिम बंगाल में भी कारक नहीं थी. ओडिशा में नवीन पटनायक को लगातार पांचवी बार जीत मिली है. चुपचाप काम करना उनकी खासियत है.

राष्ट्रीय स्तर पर भी जाति निर्णायक भूमिका नहीं निभाती. नेता अस्मिता की राजनीति के तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं. जवाहरलाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने 16 वर्षों तक शासन किया क्योंकि वे पार्टी के लिए जातिविहीन देवी थीं. वे 30 माह के लिए ही एक गठबंधन द्वारा अपदस्थ हुईं. उनके बाद राजीव गांधी को नये भारत के नये चेहरे के रूप में पेश किया गया. पर, वे पांच साल बाद हार गये. उनके बाद स्वच्छ और मजबूत वीपी सिंह सभी गैर-कांग्रेस दलों के समर्थन से आये.

ऐसा उनकी क्षमता के कारण हुआ, न कि जाति से. चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और आइके गुजराल साधारण धूमकेतु की तरह आये और चले गये क्योंकि उनमें एकजुटता की क्षमता नहीं थी. वाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री बने क्योंकि वे सचमुच राष्ट्रीय नेता थे. फिर भी, 2004 में वे अपनी पार्टी के अहंकार और सहयोगी दलों के अलग हो जाने से हार गये. उनके बाद लोकप्रिय नेता नहीं, अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह सत्ता में आये और दस वर्षों तक रहे.

उन्होंने गलतियां कीं और मोदी केंद्र में आ गये. पिछड़े वर्ग के होने से मोदी ने चुनावी रिकॉर्ड नहीं बनाया, बल्कि ऐसा एक दृष्टि और लक्ष्य वाले नेता की उनकी छवि की वजह से हुआ. केंद्र से राज्यों तक नेता की शैली और गुण से राजनीतिक भाग्य तय होता है, न कि उसके पार्टी के जातिगत समीकरण से. जातियों में विशेषाधिकार का भाव होता है. स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था- ‘पिता के कारोबार को पुत्र द्वारा हमेशा अपनाने के व्यवहार से जाति व्यवस्था का विकास हुआ है.’ जब तक पिता के कारोबार को विरासत में पानेवाली संतानें समावेशी पहचान नहीं बनायेंगी, वे देर-सबेर नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के नये स्वरूप में कारोबार से बाहर हो जायेंगी.

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