पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में 1.20 लाख लोगों की मौत हुई है यानी रोजाना औसतन 328 जानें गयीं. दुर्घटना कर भाग जाने के मामलों की प्रतिदिन संख्या भी 112 बतायी गयी है. वर्ष 2018-20 की अवधि में 3.92 लाख लोग सड़क हादसों में मारे गये हैं. कुछ दिन पहले जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ये आंकड़े बेहद चिंताजनक तो हैं ही, इनसे यह भी इंगित होता है कि दुर्घटनाओं को रोकने के प्रयासों में बड़ी कमी है.
सड़क सुरक्षा की कड़ियां केंद्र से लेकर राज्यों तथा राज्यों की राजधानियों से लेकर जिलों तक जुड़ी हुई हैं. केंद्रीय स्तर पर सड़क सुरक्षा बोर्ड का गठन कोई दस दिन पहले ही हुआ है. सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों में एक विशेष लीड एजेंसी बनाने का निर्देश दिया था, लेकिन आधे से अधिक राज्यों में उसका अनुपालन नहीं हुआ है. निर्देश में इसे एक स्वायत्त एजेंसी बनाते हुए इसमें सभी संबद्ध विभागों के पूर्णकालिक प्रतिनिधियों को शामिल करने का प्रावधान है.
जिलों में भी सड़क सुरक्षा की कमेटियां बनाने की व्यवस्था की गयी है. ये कमेटियां भी महज औपचारिकता बनकर रह गयी हैं. एक-दो महीने पर इनकी बैठकें होती हैं, जिनमें सभी संबद्ध विभागों से उनकी गतिविधियों की जानकारी जुटाकर खाना-पूर्ति कर ली जाती है. जैसे, पुलिस महकमा दुर्घटनाओं, चालान आदि की संख्या बता देता है, जाम लगने या दुर्घटना की आशंका के क्षेत्रों में कर्मियों की तैनाती का ब्यौरा दे देता है. लोक निर्माण विभाग सड़कों की मरम्मत और आगे की योजनाओं आदि की जानकारी दे देता है.
यातायात विभाग भी वाहनों की जांच प्रक्रिया के बारे में यही करता है और जागरूकता का जिम्मा निभानेवाले शिक्षा विभाग का भी ऐसा ही रवैया होता है. इस पूरी प्रक्रिया में कोई जवाबदेही निर्धारित नहीं की जाती है और न ही पिछली बैठक के आधार पर कोई जवाब-तलब किया जाता है. स्कूलों के लिए सड़क सुरक्षा से संबंधित पाठ्यक्रम बनाने की बातें भी होती रही हैं, लेकिन आज तक यह काम पूरा नहीं हो सका है. केंद्र से लेकर जिला स्तर पर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकी है.
ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर विद्यालयों में जागरूकता अभियान किस आधार पर चलाये जाते हैं. क्या बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है कि जेब्रा क्रॉसिंग से सड़क पार करो? अगर आप रांची जैसे शहरों में भी देखें, तो स्कूलों के आगे जेब्रा क्रॉसिंग नहीं दिखती. अगर उन्हें रेड लाइट के बारे में बताया जा रहा है, तो यह प्रश्न भी उठता है कि बड़े शहरों के अलावा ऐसे ट्रैफिक सिग्नल की व्यवस्था कितनी जगहों पर है.
अगर राज्यों की राजधानियों और महानगरों को छोड़ दें, तो हेलमेट पहनने की अनिवार्यता सुनिश्चित करने के लिए यातायात पुलिस की समुचित उपलब्धता नहीं है. जिलों में न के बराबर यातायात पुलिस होती है. वर्ष 2010 से 2020 के दशक को एक्शन डेकेड के रूप में तय किया गया था. इस कार्यक्रम के 11 साल हो चुके हैं. उस समय तय हुआ था कि 2010 में जितनी दुर्घटनाएं हुई हैं, उनकी संख्या में 50 प्रतिशत की कमी लानी है.
लेकिन उस समय से अब तक दुर्घटनाओं में बड़ी वृद्धि हो चुकी है. इसकी सबसे मुख्य वजह जवाबदेही का नहीं होना तथा ठोस रूप-रेखा का अभाव है. संबद्ध विभागों में आपस में समन्वय भी नहीं है. बीते दिनों मोटर वाहन कानूनों को सख्त बनाया गया है, लेकिन उन्हें लागू करा पाना बहुत बड़ी चुनौती है. देश के 80 प्रतिशत जिलों में इसके लिए व्यवस्था नहीं है. चालान करने का मामला भी कार्यशैली की कमियों का शिकार है.
दुर्घटनाओं का एक अहम पहलू सड़क, पुल, सर्विस लेन, एप्रोच रोड आदि की डिजाइन से भी जुड़ा हुआ है. देशभर में राजमार्गों के साथ समस्या है कि मोड़ या एक्जिट या जहां सड़कें मिलती हैं, उन्हें वैज्ञानिक मानकों के अनुसार नहीं बनाया जाता है. नियमों और निर्देशों के उलट राजमार्गों पर होटलों, शराब की दुकानों के सीधे संपर्क हैं, जबकि ऐसी सुविधाओं के लिए सर्विस लेन बनाने का प्रावधान है ताकि कोई गाड़ी अगर इनकी ओर मुड़े, तो पीछे से आ रहा यातायात प्रभावित न हो और कोई दुर्घटना न हो.
इसी प्रकार राजमार्गों के आसपास बसी आबादी के लिए सड़क पार करने के अंडरपास (भीतरी पुल) बनाने का निर्देश है. ऐसी व्यवस्था हर गांव के पास नहीं हो पाती है. ट्रैक्टर और मवेशियों को इस पार से उस पार ले जाने के क्रम में बड़ी संख्या में दुर्घटनाएं होती हैं. जिस तेज गति से राजमार्गों का विस्तार हो रहा है, उसमें ऐसी व्यवस्थाओं के न हो पाने की आशंका बढ़ जाती है. इस पर सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए.
सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए मौजूदा नियमों के ठीक से पालन के साथ एक व्यापक कार्य योजना बनाने की जरूरत है. कुछ सामान्य मामलों पर अतिरिक्त ध्यान देकर मौतों को रोका जा सकता है. उदाहरण के लिए, हेलमेट पहनने की अनिवार्यता पर जोर देना बहुत जरूरी है. सड़क दुर्घटनाओं में होनेवाली लगभग 35 प्रतिशत मौतों का कारण हेलमेट नहीं पहनना या गुणवत्तापूर्ण हेलमेट का इस्तेमाल नहीं करना है. बाजार में 85 प्रतिशत हेलमेट सही नहीं हैं. इस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए. यातायात पुलिस विभाग में कार्यरत अधिकारी वहां अधिक दिनों तक रहना नहीं चाहते, इसलिए वे ठीक से ऐसी समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाते. इस रवैये में सुधार होना चाहिए.