नयी दिल्ली : अफगानिस्तान के अधिकांश हिस्से पर तालिबान का कब्जा भारत के लिए परेशानी का एक सबब बना हुआ है. 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत लगातार स्थिति पर नजर बनाए हुए है. तालिबान को पाकिस्तान और चीन के सपोर्ट के बाद भारत को और भी सतर्क रहने की जरूरत है. ऐसे में कश्मीर घाटी में आतंकवादियों को तालिबान का समर्थन मिलने की चर्चा भी जोरों पर है.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक कश्मीर में कथित तौर पर विदेशी आतंकवादियों में वृद्धि देखी जा रही है. विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि इस क्षेत्र में युवा कश्मीरियों के बीच बढ़ते असंतोष के गंभीर परिणाम हो सकते हैं. 31 अगस्त को, आखिरी अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ने के कुछ घंटे बाद, अल-कायदा ने काबुल में अपनी जीत के लिए तालिबान की सराहना की. एक बयान में, आतंकवादी समूह ने कश्मीर, सोमालिया, यमन और अन्य इस्लामी भूमि की मुक्ति का आह्वान किया.
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इस बयान ने नयी दिल्ली में हलचल मचा दी. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक कश्मीर में विदेशी आतंकियों की संख्या में इजाफा देखने को मिल रहा है. द हिंदू की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान की सीमा से लगे उत्तरी कश्मीर में अब 40 से 50 विदेशी आतंकवादी और 11 स्थानीय आतंकवादी सक्रिय हैं. एक दशक में यह पहली बार होगा कि इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों की तुलना में अधिक विदेशी आतंकवादी हैं.
जम्मू-कश्मीर पुलिस के पूर्व महानिदेशक शीश पॉल वैद ने डीडब्ल्यू को बताया कि तालिबान के अधिग्रहण से न केवल कश्मीर बल्कि पूरे दक्षिण एशिया पर भी असर पड़ेगा. तालिबान के अधिग्रहण का कश्मीर घाटी सहित दुनिया भर में सक्रिय सभी आतंकवादी समूहों का मनोबल बढ़ा है. वैद ने तर्क दिया कि लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) जैसे संगठनों ने तालिबान को अफगानिस्तान पर नियंत्रण करने में मदद की है. लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि तालिबान बदले में उनकी मदद करेगा या नहीं.
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तालिबान ने सत्ता संभालने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि उन्होंने सभी आतंकवादियों को जेलों से रिहा कर दिया. इनमें इस्लामिक स्टेट (IS), लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद (JeM) शामिल थे. पाकिस्तान की ISI तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में अपने प्रशिक्षण शिविरों को अफगानिस्तान के क्षेत्रों में स्थानांतरित कर सकता है.
कश्मीर में 1989 में शुरू हुए विद्रोह में पिछले तीन दशकों में कई बदलाव आए हैं. हाल ही में, भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त कर दिया है. वैद ने कहा कि इन कदमों से आतंकवादी संगठनों की संरचना में एक व्यवस्थित बदलाव आया है. 1990 के दशक की शुरुआत में, जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने कश्मीर की स्वतंत्रता का आह्वान किया.
90 के दशक के मध्य में हिजबुल मुजाहिदीन जैसे अधिक कट्टरपंथी समूह प्रमुख हो गए. 1999 के बाद से विदेशी आतंकवादियों की घुसपैठ शुरू हुई और पैन-इस्लामिक आतंकवादी संगठन लश्कर और जेईएम ने आत्मघाती हमले शुरू कर दिये. उन्होंने कहा कि आतंकवाद में एक और बदलाव 2014 में आया जब लश्कर और जैश ने स्थानीय कश्मीरी लड़कों को अपने रैंक में भर्ती करना शुरू किया.
2016 में हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की मौत को संघर्ष के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में देखा जाता है. वैद ने कहा कि वानी नये आतंकवाद का चेहरा था. स्कोफिल्ड के अनुसार, वानी और नये उग्रवादियों का समूह अपने आस-पास के पंथ को विकसित करने में सक्षम नहीं होता अगर यह सोशल मीडिया की शक्ति का इस्तेमाल नहीं करता. जो दो दशक पहले संभव नहीं था, बुरहान और उसकी टीम ने सोशल मीडिया के उपयोग से उसे हासिल किया.
बुरहान वानी की मौत ने आंदोलन को फिर से सक्रिय कर दिया क्योंकि वह युवाओं के लिए नायक बन गया था. सोशल मीडिया के उदय के अलावा, वैद ने कहा कि बेरोजगारी जैसे कई अन्य कारकों ने युवा कश्मीरियों को आतंकवादी संगठनों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. जिहादी विचारधारा के कारण बहुत सारे लड़के कट्टरपंथी हो रहे हैं. हथियार रखने का रोमांच भी है. यह बेरोजगार युवाओं को शक्ति का एहसास देता है.
वैद ने कहा कि 2019 में जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त करने के बाद जम्मू और कश्मीर में एक सख्त सुरक्षा तालाबंदी लागू की गई. अतिरिक्त सैनिकों को पूरे क्षेत्र में तैनात किया गया. अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का जबरदस्त प्रभाव पड़ा. पिछले दो वर्षों में अब तक हिंसा का स्तर नीचे चला गया है और कम लड़के आतंकी संगठनों में शामिल हो रहे हैं. सरकार के इस कदम ने आतंकवाद को बहुत अधिक कठिन बना दिया, लेकिन युवाओं में असंतोष बढ़ गया. 2019 की घटनाओं के बाद, रेसिस्टेंस फ्रंट (TRF) जैसे नये उग्रवादी संगठन उभरे. लेकिन वे भी अपने पूर्ववर्तियों की तरह समाप्त हो सकते हैं.
Posted By: Amlesh Nandan.