श्रीनगर: करीब चार दशक से अपने ही देश में विस्थापितों का जीवन जी रहे कश्मीरी पंडितों के लिए उम्मीद की किरण नजर आयी है. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के खत्म होने के दो साल बाद अब उनकी जमीन और अन्य प्रॉपर्टी के विवादों के निबटारे और जमीन पर कब्जा दिलाने की पहल की गयी है. जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने मंगलवार को इसके लिए एक पोर्टल (http://jkmigrantrelief.nic.in) लांच किया.
इस पोर्टल पर कश्मीरी पंडित अपनी संपत्ति की जबरन बिक्री, जबरन कब्जा या अन्य समस्याओं के बारे में अपनी शिकायतें दर्ज करा सकेंगे. अनुच्छेद 370 के समाप्त होने के बाद केंद्रशासित प्रदेश बन चुके जम्मू-कश्मीर की सरकार ने कहा है कि जो शिकायतें मिलेंगी, पब्लिक सर्विसेज गारंटी एक्ट, 2011 के तहत एक समयसीमा के भीतर राजस्व पदाधिकारी उनका निराकरण करेंगे.
सरकार ने कहा है कि जिला मजिस्ट्रेट 15 दिन के अंदर सर्वे या फील्ड वेरिफिकेशन के बाद प्रॉपर्टी के रजिस्टर को अपडेट करेंगे और डिवीजनल कमिश्नर को इससे संबंधित रिपोर्ट सौंपेंगे. ज्ञात हो कि वर्ष 1997 में जम्मू एवं कश्मीर की सरकार ‘जे एंड के माइग्रेंट इम्मूवेबल प्रॉपर्टी (प्रिजर्वेशन, प्रोटेक्शन एंड रेस्ट्रेंट ऑन डिस्ट्रेस सेल) एक्ट, 1997’ लायी थी, ताकि आतंकवाद की वजह से कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किये गये लोगों की प्रॉपर्टी को सुरक्षा प्रदान किया जा सके.
सरकार ने कहा है कि पोर्टल पर सभी संबंधित पक्ष अपनी शिकायत दर्ज करा सकेंगे. सभी की शिकायतों पर समान रूप से सुनवाई की जायेगी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 44,167 परिवार आधिकारिक रूप से विस्थापित कश्मीरी परिवार हैं. इनके अलावा वे लोग भी इस पोर्टल पर अपनी शिकायत दर्ज करा सकेंगे, जो विस्थापित कश्मीरी के रूप में पंजीकृत नहीं हैं.
एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि यदि कानून का उल्लंघन होता है, तो जिला मजिस्ट्रेट इसका संज्ञान लेंगे. जिलाधिकारियों को ही जमीन पर दखल दिलाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है. कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर ने सरकार के इस फैसले की प्रशंसा की है. ये लोग लंबे अरसे से इस बात की मांग कर रहे हैं कि आतंकवाद की आड़ में कश्मीरी पंडितों से जबरन खरीदी गयी जमीनों की बिक्री को अवैध करार दिया जाये. पनुन कश्मीर के सदस्यों का मानना है कि औने-पौने दाम पर जमीन बेचने के लिए कश्मीरी पंडितों को मजबूर किया गया. यह अपने आप में नरसंहार से कम नहीं है और तब की सरकार इसे रोकने में नाकाम रही.
80 के दशक में शुरू हुआ कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार
धरती के स्वर्ग कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का सिलसिला 80 के दशक में शुरू हुआ. वर्ष 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारूक अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और खुद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन बैठे. इसके बाद जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाही मस्जिद बनवाने का एलान कर दिया गया. विरोध लाजिमी था. जवाब में कट्टरपंथियों ने नारा दिया- इस्लाम खतरे में है.
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इसके साथ ही कश्मीरी पंडितों पर हमले शुरू हो गये. दक्षिण कश्मीर और सोपोर में सबसे ज्यादा हमले हुए. प्रॉपर्टी लूटने का सिलसिला शुरू हो गया. हत्या और बलात्कार की घटनाएं भी आम हो गयीं. दुनिया ने कश्मीरी पंडितों पर हिंसा की इंतहां 19 जनवरी 1990 को देखी, जब उनके घर पर फरमान चिपका दिया गया कि कश्मीर छोड़ दो वरना मारे जाओगे. इसी तारीख को सबसे ज्यादा लोगों को कश्मीर छोड़कर भागना पड़ा. करीब 4 लाख लोग विस्थापित हुए. सरकारी आंकड़ों को देखें, तो 60 हजार परिवारों को जान बचाने के लिए कश्मीर छोड़ना पड़ा था.
मीडिया रिपोर्ट्स की मानें, तो कश्मीरी पंडितों के दिल में करीब 40 साल पुरानी दहशत और उन पर हुए अत्याचार पर गुस्सा आज चरम पर है. तब चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा गया था कि कश्मीरी पंडित यहां से चले जायें, नहीं तो बुरा होगा. इसके बाद लोग लगातार हत्या और बलात्कार का दौर शुरू हो गया. कट्टरपंथी कह रहे थे कि पंडितों, यहां से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ. बिट्टा कराटे नामक आतंकवादी ने अकेले 20 लोगों की हत्या कर दी थी.
कश्मीर को भारत से अलग करने की साजिश
कश्मीर को भारत से अलग करने की साजिश भी 80 के दशक में शुरू हुई. जुलाई 1988 में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बना. कश्मीरियत सिर्फ मुसलमानों की रह गयी. पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया. 14 सितंबर 1989 को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया. हत्यारे पकड़ में नहीं आये. कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी से खदेड़ने के लिए की गयी यह पहली हत्या थी.
हमारे साथ मिल जाओ, मरो या भाग जाओ
जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधियों को जेल से रिहा कर दिया गया था. इन्हें क्यों रिहा किया गया, इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार के मुखिया फारूक अब्दुल्ला ने आज तक नहीं दिया. उस दौरान कश्मीर में नारे लगाये जाते थे- हम क्या चाहते हैं… आजादी. आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह. अगर कश्मीर में रहना है, तो अल्लाहु अकबर कहना होगा. ऐ जालिमों, ऐ काफिरों, कश्मीर हमारा है. यहां क्या चलेगा? निजाम-ए-मुस्तफा रालिव, गालिव या चालिव. (हमारे साथ मिल जाओ, मरो या भाग जाओ).
Posted By: Mithilesh Jha