अफगानिस्तान में रहनेवाले अल्पसंख्यक समुदाय या तालिबान से इत्तफाक नहीं रखनेवाले लोग बहुत भयभीत हैं. स्वाभाविक तौर पर 20 साल पहले की उनकी यादें ताजा हो गयी हैं. हालांकि, अफगानिस्तान में युवा आबादी अधिक है और तालिबान के साथ उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं है, लेकिन अपने समुदाय और परिवार का अनुभव उन्हें चिंतित कर रहा है. तालिबान किस तरह की बातें कर रहा है, उससे अधिक महत्वपूर्ण है कि जमीनी हकीकत किस तरह आगे बढ़ती है.
लोग डरे हुए हैं और कोशिश कर रहे हैं कि वे वहां से निकल जायें. भारत ने कहा है कि हमारी जिम्मेदारी बनती है कि जो भारतीय वहां फंसे हुए हैं, उनकी सुरक्षित वापसी तय की जाये. अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों के लिए प्रयास हो रहे हैं.
जो मुस्लिम तालिबान से इत्तफाक नहीं रखते और आना चाहते हैं, भारत के पास अगर सुविधाएं हैं, तो वे कोशिश कर सकते हैं. हालांकि, उनके लिए और भी विकल्प होते हैं, क्योंकि अगर वे ताजिक मूल के हैं, तो ताजिकिस्तान, उज्बेक हैं तो उज्बेकिस्तान, शिया, हजारा हैं, तो ईरान आदि देशों में शरण ले सकते हैं. हालात सामान्य होने पर, हो सकता है कि वे दोबारा लौट जायें. अभी महिलाओं की चिंता अधिक है. उनके सामने पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य सुविधाओं की चिंता है.
अफगानिस्तान को देखकर यह आशंका होती है कि कहीं तालिबान इस इलाके को पूरी तरह अस्थिर न कर दे और आसपास के देश भी इससे प्रभावित हों. भारत को स्वाभाविक तौर पर चिंता होनी चाहिए, क्योंकि पिछली बार तालिबान के शासनकाल में ही हमारा विमान नेपाल से हाइजैक किया गया था. उस तरह की घटनाएं हमें भूलनी नहीं चाहिए. पाकिस्तान से जो आतंकवाद फैलता रहा है, उससे भारत को सतर्क रहने की आवश्यकता है.
पाकिस्तान और तालिबान पर दबाव डालना भी जरूरी है, ताकि वे जवाबदेहीपूर्ण रवैया रखें. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे जो वादा करते हैं, उसके लिए वे जिम्मेदार बने रहें. संयुक्त राष्ट्र की तरफ से उन पर दबाव बनाया जा सकता है. विश्व बैंक, आइएमएफ, एशिया विकास बैंक संस्थाओं में भारत को अपना पक्ष रखना होगा कि हमने अफगानिस्तान में बहुत खर्च किया हुआ है.
वहां भारत ने तीन अरब डॉलर का निवेश किया है. अगर वे ही लोग उसे हर बार खत्म कर देंगे, तो वहां विश्वास नहीं पैदा हो पायेगा. उन पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से दबाव बनाया जा सकता है कि जब तक वे अपने बर्ताव न बदलें, उन्हें किसी तरह की मदद न मिले.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रूस सबसे बड़ी ताकतें थीं. अब चीन अगले 15-20 वर्षों में सबसे बड़ी शक्ति बनना चाहता है. उनकी अफगानिस्तान में भी भूमिका रही है, उनकी जिम्मेदारी है कि वे तालिबान के रोल को भी ध्यान में रखें. चीन पाकिस्तान और अन्य देशों में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और बुनियादी ढांचा विकास जैसी योजनाओं पर काम कर रहा है. अगर अफगानिस्तान में वे ऐसा कुछ शुरू करते हैं, तो जो भी शर्तें निर्धारित करेंगे, उससे अफगानिस्तान के हालात में बदलाव आ सकते हैं.
अगर इससे स्थिरता बनाने में मदद मिलती है, तो अच्छा होगा. लेकिन, हमें ध्यान में रखना होगा कि चीन ने हमारे लिये अभी तक कोई अच्छा काम नहीं किया है. चाहे लद्दाख का मसला हो, डोकलाम हो या पीओके में जिस तरह के काम कर रहा है, वह हमारे खिलाफ ही रहा है. भारत को सतर्क रहने के साथ यह देखने की आवश्यकता है कि चीन किस तरह जिम्मेदारियां लेता है और उसे कैसे पूरी करता है. चीन ने पड़ोसी देशों की मदद की है, लेकिन भारत का उससे नुकसान ही रहा है.
इसलिए भारत को यह ध्यान में रखना होगा कि अगर चीन अफगानिस्तान में पैठ बनाता है, तो उससे भारत का क्या अहित होगा. जहां तक रूस की बात है तो वह कोशिश कर रहा है. काफी समय से अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ उसके रिश्ते खराब रहे हैं. वह चाहता है कि चीन, पाकिस्तान आदि देशों के साथ मिलकर काम किया जाये. रूस का जो विघटन हुआ, उसमें अफगानिस्तान की तरफ से भेजे गये आतंकवादियों से काफी नुकसान हुआ था. वे कोशिश कर रहे हैं कि हालात सामान्य बना रहे.
पाकिस्तान ने हमेशा से आतंकियों की मदद की है. जब हमारा विमान हाइजैक हुआ था, तो सारे के सारे लोग अफगानिस्तान से निकल कर पाकिस्तान भाग गये थे. अगर अफगानिस्तान अपना रवैया बदलता है और स्थिरता आती है, तो इस्लामिक देश होने की वजह से नहीं चिंता करनी चाहिए, बल्कि हमारी चिंता पुराने अनुभवों को लेकर होनी चाहिए. यह भी देखना होगा कि वे पाकिस्तान से कितना दबाव में आयेंगे, जो हमारे हितों के खिलाफ हो सकता है.
अभी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में जो भी भारतीय नागरिक, अल्पसंख्यक या महिलाएं हैं या ऐसे लोग हैं, जिन्हें तालिबान से खतरा है, उनके सुरक्षा के उपाय किये जायें. अमेरिका 20 साल से अफगानिस्तान में नियंत्रण करता रहा है. अभी भी उनके पास ताकत है कि वे वहां अपने सुरक्षित जोन बना सकते हैं. भारत के लिए जरूरी है कि अमेरिका से वार्ता करके आवश्यक उपाय करे.
अपने लोगों को वहां से निकालने में अगर भारत को सेफ जोन की मदद मिल जाती है, तो इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए. हमें यह तत्परता से करना होगा, क्योंकि हमें मालूम नहीं है कि वहां हालात किस तरह बदलेंगे. केवल उम्मीदों के सहारे ही अपने लोगों के लिए रिस्क मोल नहीं ले सकते हैं. अगर हालात बिगड़े, तो बहुत तेजी से बिगड़ेंगे. हम देख रहे हैं कि 10-12 दिनों के अंदर ही किस तरह से घटनाक्रम बदला है. अमेरिका वहां काफी समय रह रहा है और उनकी योजना दो-तीन महीनों की थी, लेकिन वे भी इसका अनुमान नहीं लगा पाये. भारत को सतर्क रहना चाहिए कि आतंकवादी किसी भी तरह देश में न आने पायें. यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है.