Sidharth Malhotra interview : कारगिल युद्ध के अहम नायकों में से एक कैप्टेन विक्रम बत्रा की कहानी ओटीटी प्लेटफार्म में रिलीज फिल्म शेरशाह में दर्शायी जा रही है. फ़िल्म में शीर्षक भूमिका में अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा नज़र आ रहे हैं. इस फ़िल्म से जुड़ी जिम्मेदारियों और चुनौतियों पर सिद्धार्थ मल्होत्रा से हुई उर्मिला कोरी की बातचीत…
यह आपकी पहली बायोपिक फ़िल्म है वो भी ऐसे शख्सियत पर जिसकी शहादत पर पूरा भारत गर्व करता है ऐसे में कितना प्रेशर था?
मैं पहली बार रियल लाइफ हीरो का किरदार निभा रहा हूं जिसने देश के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी. जब आप ऐसा किरदार करते हैं. जिसको आम लोग और आर्मी इतना प्यार करती है. इतना सम्मान देती है. उनके बारे में इतना कुछ लिखा है कि एक प्रेशर आता है. एक जवाबदेही आती है. मैं अपने लिए ये गर्व की बात मानूंगा कि कप्तान विक्रम बत्रा की यूनिफार्म पहनने का मुझे मौका मिला. इसके साथ ही मैं कहना चाहूंगा कि उनके परिवार के लिए ये कमर्शियल कहानी नहीं है. कोई पिक्चर नहीं है. जब वे इस फ़िल्म को देखें तो उन्हें लगे कि हमने उनके बेटे की कहानी को अच्छे से दर्शाया है. एक लिगेसी को आगे बढ़ाया है. मुझे सबसे ज़्यादा डर विक्रम बत्रा के परिवार के रिव्यु का ही है तो एक इमोशनल और सम्मान वाला प्रेशर है.
निर्देशक विष्णुवर्धन का कहना है कि आप इस फ़िल्म की हमेशा से पहली पसंद थे ये शब्द क्या आत्मविश्वास को बढ़ाता है?
मैं पहले कास्ट हो गया था.विष्णु जी बाद में आए थे. मैं उन्हें हमेशा ये बात मज़ाक में कहता हूं 5 साल पहले मैं विक्रम बत्रा जी के जुड़वा भाई विशाल बत्रा से इस फ़िल्म के सिलसिले में मिला था. उस वक़्त स्क्रिप्ट अलग थी. फिर मैंने धर्मा प्रोडक्शन से अप्रोच किया और फिर अलग टीम फ़िल्म से जुड़ी. स्क्रिप्ट में भी बदलाव आया.
बायोपिक फ़िल्म क्या एक एक्टर के तौर पर ज़्यादा चुनौती पेश करती हैं?
आपके दायरे छोटे हो जाते हैं कि यार आपको यही तक काम करना होगा. इस सीन में इस पॉइंट तक पहुंचना है. जब आपको पता है कि ए से सी तक इसी तरह से पहुंचना है तो आपको ज़्यादा क्राफ्ट और कंट्रोल की ज़रूरत होती है. दूसरी स्क्रिप्ट में आपके पास फ्रीडम होती है. आप अपने हिसाब से किरदार और सिचुएशन में हेर फेर या परफॉर्म कर सकते हैं.
विक्रम बत्रा ने जब कारगिल की पहाड़ियों में ये दिल मांगे मोर कहा था वो कारगिल युद्ध का चेहरा बन गए थे उस दृश्य को दोहराते हुए आपके जेहन में क्या चल रहा था?
जब मैं कारगिल में 14 हज़ार फीट की ऊँचाई में दिल मांगे मोर वाला सीन कर रहा था. मैं सोच रहा था कि विक्रम जी थके हुए होंगे. थोड़ी बहुत चोटों भी लगी हुई हैं और वो अपने सीनियर को बोल रहे हैं कि ये दिल मांगे मोर. डर तो उनसे कोसों दूर था. वो वॉर जल्द से जल्द खत्म करना चाहते थे इसलिए उस सीन को लेकर मेरा बहुत ही फैन बॉय वाला पल था. डर हम सबकी ज़िन्दगी में होता है और वो हमें अलग अलग चीजों को करने से रोकता है. कैप्टेन विक्रम बत्रा ने उस पर हमें बहुत ही अच्छी सीख दी है.
इस फ़िल्म का सबसे मुश्किल दृश्य आपके लिए कौन सा था?
कैप्टेन विक्रम बत्रा का जो आखिरी सीन है. जब वो शहीद हो रहे हैं. वो मेरे लिए सबसे मुश्किल सीन था.कैसे करूं वो सीन. सही कर रहा हूं. जेहन में बहुत कुछ चल रहा था. हमारे पास इस सीन को लेकर बहुत हल्की फुल्की जानकारी थी कैसे क्या हुआ था. ज़्यादा कुछ पता नहीं था. इस सीन के लिए एक महीने से हमारी तैयारी शुरू हो गयी थी.कहाँ वो सीन होगा वहां जाना. आखिरी कदम कैसे होंगे. वो सब तय हुआ.
इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान आपने आर्मी और उनकी ज़िंदगी को कितना करीब से जाना?
दो महीने इंडियन आर्मी के एक्स पर्सनेल के साथ मुंबई में ट्रेनिंग भी हुई थी. फिर कारगिल में भी ट्रेनिंग हुई. हमारे जवान मेंटली कितने स्ट्रांग हैं. इन ट्रेनिंग्स के दौरान मैंने करीब से जाना. कारगिल में मेरा दूसरा दिन था. मैं हेलमेट गियर गन लेकर तैयार था शूटिंग के लिए कारगिल में धूल भरी हवाएं बहुत चलती हैं. मैं शॉट देने को जाने लगा तो अपना कॉस्ट्यूम से धूल को झाड़ा कि कॉस्ट्यूम की जो ऑन स्क्रीन निरंतरता है. वो एक सी रहे. दूर खड़ा एक सिपाही देख रहा था उसने मुझसे कहा कि क्या हुआ अपनी मिट्टी है. मैंने उसे समझाया कि मिट्टी को मैंने स्क्रीन में निरंतरता बनाए रखने के लिए साफ किया किसी और वजह से नहीं. लेकिन उस जवान की बात को सोचिए उसके लिए देश की मिट्टी भी कितनी अनमोल है. हमारे पास रीटेक के मौके रहते हैं लेकिन हमारी आर्मी के पास नहीं होते हैं. कारगिल में शूटिंग आसान नहीं थी. इतनी उच्चाई पर शूटिंग. सिर्फ धूल ही धूल. पहाड़ पर पेड़ पौधे नहीं कि आप छांव ले लो. मेरे दादू खुद आर्मी में रहे हैं लेकिन जब मैंने वहां जाकर परिस्थितियों को देखते हैं तो आपको लगता है कि हमारे जवान क्या कुछ हमारी सुरक्षा के लिए नहीं कर रहे है. हमारी फ़िल्म में 80 से 90 प्रतिशत तक हकीकत के करीब है सिर्फ 10 प्रतिशत सिनेमैटिक लिबर्टी ली है.
ये 15 अगस्त आपके लिए कितना खास है और देश के युवाओं से आप क्या कहेंगे?
ये 15 अगस्त मेरे लिए बहुत खास है. मैं चाहता हूं कि लोग शेरशाह देखें और भारतीय आर्मी और हमारे शहीद जवानों को लेकर उनका रिस्पेक्ट बढ़े. इस फ़िल्म को बनाने का मूल मकसद यही है. वो इतने मुश्किल हालातों में अपने ड्यूटी को अंजाम देते हैं. आप सोच भी नहीं सकते हैं. हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी है. ऐसे में मुश्किलें होंगी. हर किसी को खुश करना बहुत मुश्किल है. परेशानियां हैं उनपर पॉलिटिक्स भी हमेशा होती रहेगी. दुनिया के कई देश हैं जहां लोगों को कोई कल्चर फॉलो करने के लिए यहां तक की अपनी बात रखने के लिए बहुत कुछ झेलना पड़ता है. हमारे देश में ऐसा नहीं है तो हमें देश की खूबियां भी याद रखनी चाहिए.
कोरोना ने हम सभी की ज़िन्दगी में आज़ादी का मतलब समझाया आप अपनी लाइफ में कब अपने फैसलों को लेने के लिए आज़ाद हुए?
जब मैंने 21 साल की उम्र में मुम्बई आने का फैसला किया था वो मेरी ज़िंदगी का फ्रीडम मोमेंट था. मैं आया किसी फिल्म के लिए था दिल्ली से मुम्बई लेकिन वो फ़िल्म बनी नहीं. फिर शुरू हुआ स्ट्रगल. काम ढूंढने. घर ढूंढने का. लोगों के साथ रूम शेयर करने का. खर्चों को बजट में रखने का. वो स्ट्रगल आपको दुनिया के सारे इमोशन सीखा देती है. बचपना रहता भी है और एक किस्म से चला भी जाता है.जब आपको बता नहीं रहा होता है कि क्या करना है. आपको सारे फैसले लेने हैं.