जुलाई के मध्य तक हमारे देश में कोरोना महामारी से मरनेवालों की आधिकारिक संख्या चार लाख से ऊपर थी. यह आम स्वीकार्य समझ है कि वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक हो सकती है. फिर भी, आत्महत्या, अवसाद, चिंता और महामारी के कहर से मृत लोगों के परिजनों की वंचना के कारण हुई मौतें इस आंकड़े में शामिल नहीं हैं, जो सीधे तौर पर कोरोना की वजह से नहीं हुईं, पर परोक्ष रूप से महामारी का परिणाम हैं.
संक्रमण में कमी, टीकाकरण में तेजी और संभावित तीसरी लहर की तैयारियों के साथ सरकार को इन परिवारों पर ध्यान केंद्रित करना होगा. महामारी के ऐसे पीड़ितों को राहत की दरकार है, जो इसके लिए आग्रह भी नहीं कर पा रहे हैं. जून में मुंबई की पत्रकार रेशमा मैथ्यू के मामले को देखें, जिन्होंने अपने सात साल के बच्चे के साथ किराये के मकान से कूद कर आत्महत्या कर ली.
उससे करीब एक माह पहले कोविड से उनके पति की मौत हो गयी थी, जो बनारस में तब संक्रमित हुए थे, जब वे अपने माता-पिता की देखभाल कर रहे थे. वहीं तीर्थयात्रा के दौरान उन दोनों की मृत्यु हो गयी थी. ऐसे में एकल परिवार व्यवस्था में रेशमा अकेली रह गयी थीं और मुंबई में उनका कोई सहारा भी न था. यह परिवार हाल में बेंगलुरु से आया था.
यह एक छुपा हुआ संकट है और गंभीर होता जा रहा है. अमेरिकी संस्थानों ने अपने अध्ययनों में बताया है कि कोविड-19 से होनेवाली मौतों के अलावा ‘निराशा से होनेवाली मौतों’ की महामारी भी फैल रही है. कैलिफोर्निया के वेल बीइंग ट्रस्ट के अनुसार, नशे की लत और आत्महत्या से और 75 हजार लोगों की जान जा सकती है. इस संस्था ने चेताया है कि यदि अकेलेपन, दुख-दर्द आदि के निवारण में निवेश नहीं किया गया, तो महामारी का कुल प्रभाव और भी त्रासद होगा. अमेरिका में निराशा से होनेवाली मौतों के कारण भारत में भी मौजूद हैं.
ये कारण हैं- व्यापक बेरोजगारी के साथ अभूतपूर्व आर्थिक विफलता, महीनों तक सामाजिक अलगाव में रहना तथा वर्षों तक अलग-थलग रहने की आशंका. तीन-चार सदस्यों के कई भारतीय एकल परिवार आय का मुख्य स्रोत खत्म होने से लगभग बदहाल हो गये हैं. इनमें उनकी स्थिति अधिक ही खराब है, जो हाल में दूसरे शहरों में बसे हैं या विवाद व विवाह की वजह से परिजनों से अलग हैं. संक्रमण बढ़ने पर लागू होनेवाली पाबंदियों और कोई उपाय न होने के कारण ऐसे परिवार अकेलेपन के शिकार होते जा रहे हैं.
अपने परिजनों की मौतों और उनका ठीक से अंतिम संस्कार न हो पाने से भी कई लोगों को भारी आघात लगा है. ऐसे भी कई परिवार हैं, जो कर्जों की भारी किस्तों और अन्य बड़े खर्चों को नहीं चुका पा रहे हैं, जिन्हें उपभोक्तावादी युग में सफलता एवं उपलब्धि का सूचक माना जाता है. गुरुग्राम के शेट्टी परिवार की त्रासदी एक उदाहरण हैं. इस परिवार ने आत्महत्या की और अपने संदेश में लिखा कि घर और कार के कर्ज माफ कर दिये जाएं.
महामारी के आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर के साथ ऐसी त्रासदियों की सूचनाएं भी बढ़ेंगी. दूसरी लहर के दौरान मई में हुए एक ऑनलाइन सर्वे में पाया गया था कि लगभग 61 प्रतिशत भारतीय क्रुद्ध, दुखी, अवसादग्रस्त या चिंतित हैं. इसमें केवल सात प्रतिशत ने ही अपने को शांत व स्थिर बताया था. अन्य रिपोर्टों में इंगित किया गया है कि हेल्पलाइन और अन्य सहायता केंद्रों को फोन करने की संख्या महामारी के दौरान बहुत अधिक बढ़ गयी है.
लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद आत्महत्या से संबंधित दबाव के बारे में एक अध्ययन में बताया गया है कि 80.8 फीसदी मामले पुरुषों के थे और मृतकों की औसत आयु 38 साल के आसपास थी. लॉकडाउन के दौरान आत्महत्या करनेवालों की उम्र पाबंदी हटाने के बाद आत्महत्या करनेवाले लोगों से बहुत कम थी. मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन एमपॉवर को देशभर से पिछले साल मार्च और इस साल अप्रैल के बीच 70 हजार लोगों ने फोन किया था, जिनमें अधिकतर 26 से 40 साल की उम्र के थे.
इन लोगों में 70 प्रतिशत से अधिक संख्या पुरुषों की थी. समय पर दवा, उपचार और मनोचिकित्सा मुहैया कराकर बहुत से लोगों को आत्महत्या से रोका जा सका है. सवाल है कि उनके साथ क्या होता है, जो मदद नहीं मांगते. इसके बावजूद बाजारों में घूमने से लगता है कि जीवन सामान्य ढर्रे पर लौट रहा है. अनेक दुकानदारों ने बताया है कि मांग बढ़ रही है और लोग खूब खरीदारी कर रहे हैं.
इस माहौल को सामान्य स्थिति बहाल होने के संकेतक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यहां उस विस्फोटक स्थिति को अनदेखा कर दिया जाता है, जो अवरोधों से पैदा हुई है और सतह के ठीक नीचे दबी हुई है. निश्चित ही यह मान लेना एक भूल होगी कि हमारा देश और हम लोग स्वास्थ्य के मोर्चे पर और परदे के पीछे के महामारी के असर से अछूते्, बिना नुकसान के, फिर से पहले के जीवन में लौट जायेंगे. जो लोग अकेले हैं और अपने परिवार से हट कर अलग-अलग शहरों में काम कर रहे हैं, उनके लिए महामारी और लॉकडाउन ने उस समस्या को बेहद गंभीर बना दिया है, जो सामाजिक बदलावों के रूप में धीरे-धीरे भारतीय परिवार व्यवस्था और संस्कृति में नब्बे के दशक के उदारीकरण के बाद पैठ बनाती आ रही है.
जैसे-जैसे आकांक्षाएं बढ़ीं, वैसे-वैसे किस्तें बढ़ती गयीं और संयुक्त परिवार को झटका लगा. साल 2011 की जनगणना के अनुसार आज 60 साल की उम्र से अधिक के दस करोड़ भारतीय हैं. कभी अतीत में संयुक्त परिवार की अगुआई करने, मार्गदर्शन करने और उसे एकजुट रखनेवाले ये ‘वरिष्ठ नागरिक’ आज भारतीय परिवार में बदलाव के साथ एक अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहे हैं.
कहा जा सकता है कि महामारी भारतीय सामाजिक संरचना में कुछ नयी दरारें पैदा कर रही है. ‘घर से काम करने’ की व्यवस्था एकल परिवारों के रुझान को पलट देगी? तुरंत भोजन, नगदी और प्रशंसा की संस्कृति पर इसका क्या प्रभाव होगा, जिस पर नयी पीढ़ी पली-बढ़ी है? जब ये रुझान बन रहे हैं और अपनी पैठ बना रहे हैं और जिन पर बाजार की नजर है, सरकार के लिए इस अदृश्य संकट को लेकर जागने का समय है, क्योंकि यह धीरे-धीरे बढ़ रहा है और महामारी के जाने के बाद विकराल हो जायेगा.