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समाज की प्राणदायिनी है भाषा

भाषा और व्यापार साथ-साथ चलते रहे हैं. भाषाओं की बरक्कत में कारोबार-रोजगार का बड़ा योग रहा. दूसरे दर्जे पर हैं सैलानी, घुमक्कड़ या रोजीदार. साहित्य तीसरे पायदान पर है.

दुनियाभर की भाषाओं में किसी न किसी किस्म के अपकर्ष, खराबी, खामी, कमजोरी वाली शब्दावली में स्तरहीनता वाली बात विभाजन या अलगाव से पैदा होती है. प्रतिमा हो या अंग-भंग अथवा विकलांगता, इतिहास गवाह है कि सबसे पहले यही बातें दोष समझी जाती थीं. इसका क्या अर्थ हुआ? किसी वस्तु का विभाजन क्या कहता है? विभाजन से दोष उत्पन्न होता है. विकास के शुरुआती चरणों में प्राकृतिक या मानव निर्मित वस्तुओं में किसी भी किस्म के क्षरण को बुरा समझा जाता था. इसके ही अनेक आयाम टूट, फूट, दरार, भग्नता, चूर्ण जैसे अर्थों में नजर आते हैं.

मिसाल के तौर पर ‘त्रुटि’ शब्द को ही लिया जाए. सामान्य तौर पर इसका अर्थ दोष ही है. किसी पदार्थ, प्रकृति, भाषा में किसी किस्म की कमी, कसर या अभाव के लिए त्रुटि का प्रयोग होता है. भारत-पाक विभाजन से पाकिस्तान का हाल क्या हुआ है? वहां साझी संस्कृति का टोटा हो गया न! किसी चीज की कमी होना, यानी टोटा होना. टूटना भी त्रुट् से ही है. विभाजन या बंटवारा भी टूटना ही है. मराठी से हिंदी में अनेक शब्द आये हैं, उनमें ‘हलकट’ भी है.

‘हलकट’ हिंदी की नहीं, मराठी की जमीन पर तैयार हुआ शब्द है. इसका रिश्ता ‘हलका’ से ही है. हिंदी में जो बात ओछा में है, लगभग उसी तरह हम ‘हलका’ शब्द का प्रयोग भी अनेक संदर्भों में करते हैं. मसलन, हलकी बात यानी ओछी बात. जब हम किसी को हलका आदमी कहते हैं, तो बात वजन के संदर्भ में न होकर उसके ज्ञान और चरित्र के उथलेपन, ओछेपन की होती है. टुच्चे आदमी को हम मूलतः तुच्छ ही समझते हैं. प्रसंगवश तुच्छ का रूपांतर ही टुच्चा है.

भोजपुरी में कनिष्ठ, छोटा के अर्थ में लहुरा/ लहुरी जैसे शब्द हैं. ‘लघु’ से ही ‘लहु’ ( रक्त नहीं) बनता है. भोजपुरी के ‘रा’ प्रत्यय से ‘लहुरा’ बन जाता है. लघु से लघुक बनता है, जिसका प्राकृत रूप ‘लहुक’ होता है. हिंदी में वर्णविपर्यय हुआ. पहले ‘हलुक’ और फिर ‘हलका’ बना. मराठी में हलका में ‘अट’ प्रत्यय लगने से हलकट शब्द बना, जिसमें हलकेपन से जुड़ी तमाम अर्थछटाएं हैं ही, साथ ही इसका अपकर्ष भी है. अर्थात तुच्छ, ओछा जैसा भाव भी. हलकट में यही हाल दीवाना या रोमियो का है.

दोनों लगभग उन्मादी प्रेमी की अर्थवत्ता रखते हैं, मगर दीवाना का मूल देव है और रोमियो का मूल रूमान से है. दोनों ही अब व्यंग्य में बरते जाते हैं. कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनकी अर्थवत्ता और उच्चारण अंग्रेजी में जाकर सर्वथा बदल गया, जैसे- जैगरनॉट. खुरदुरा सा लगनेवाला यह शब्द मूलतः हिंदी का है.

यह अंग्रेजी भाषा के ध्वनि तंत्र के मुताबिक हुआ है. ओडिशा का भव्य जगन्नाथ मंदिर और विशाल रथ अंग्रेजी में जैगरनॉट हो गया. शुरुआत में जगन्नाथ के विशाल रथ में निहित शक्ति जैगरनॉट की अर्थवत्ता में स्थापित हुई. उसके बाद जैगरनॉट में हर वह वस्तु समा गयी, जिसमें प्रलयकारी, प्रभावकारी बलशाली का भाव है.

हिंदी में ‘पोंगा’ शब्द मूर्ख के अर्थ में होता है. यह संस्कृत के ‘पुंगव’ शब्द का विकास है. पुंगव का मूल अर्थ है अपने क्षेत्र का श्रेष्ठ, नायक, प्रमुख आदि. नर-पुंगव का अर्थ है नर-श्रेष्ठ. किंतु आज इसका अर्थ है- बिना ज्ञान का पंडित. पंडित सोइ जो गाल बजावा. सो, ऐसे ज्ञानियों को लोक में बतौर पोंगा-पंडित ख्याति मिल जाती है. इसका अर्थ है-पांडित्य जताने का प्रयास करनेवाला ऐसा व्यक्ति जो मूलतः मूर्ख है.

जब हम किसी भाषा को अपनाते हैं, तो उसे बोलनेवाले समाज के प्रति सहिष्णुता का पहला बूटा दिल में उगता है. फिर उनकी तहजीब और तवारीख जानने लगते हैं. फिर वक्त आता है रिश्तेदारियां तलाशने का, जो आखिरकार निकल भी आती हैं. भाषा और व्यापार साथ-साथ चलते रहे हैं. भाषाओं की बरक्कत में कारोबार-रोजगार का बड़ा योग रहा. दूसरे दर्जे पर हैं सैलानी, घुमक्कड़ या रोजीदार. साहित्य तीसरे पायदान पर है. ये कारोबारी, सैलानी या मजदूर ही थे, जो समंदर पार कर, मुल्कों, शहरों न सिर्फ हर जुबान की चाशनी जांच रहे थे, बल्कि उसमें अपनी मिसरी भी घोल रहे थे.

हिब्रू इसलिए गायब नहीं हुई थी कि कठिन थी, बल्कि इसलिए कि उसे बोलनेवाले यहूदी हजारों साल से जलावतनी झेल रहे थे. वे जिन-जिन मुल्कों में थे, वहां की जबानें बोलते रहे. जब वे इस्राइल लौटे, हिब्रू फिर जिंदा हो गयी. किसी भी सूरत में सही, आज वह सांस लेती जबान है. भाषा बोलने से जिंदा रहती है, लिखने से यादगार बनती है. तुर्की, ताजिक, पश्तो या फारसी बोलने वाले हिंदुस्तान आए पर आखिरकार उन्हें हिंदी अपनानी पड़ी. आधा दर्जन अलग-अलग नामों से सही, पर साबका हिंदी से था, हिंदी को ही अपनाया.

तो सरस्वती यानी वाग्देवी यूं ही मेहरबान नहीं होती समाजों पर. वे उनकी प्राणदायिनी धारा होती हैं. उनके गुणसूत्रों को साथ लेकर बहती हैं. हां, कद्र न करें तो सरस्वतियां लुप्त भी हो जाती हैं. हम रेत में धार तलाशते हैं. हाथ लगती हैं शिकस्ता कश्तियां. हमें सोचना चाहिए कि जब तक पूर्वी बंगाल में बांग्ला और पाकिस्तान में सिंधी, पंजाबी, सरायकी, पश्तो, बलूची और ब्राहुई बोलने वाला आखिरी समाज बाकी रहेगा, दुनिया वाले दरअसल भारतवर्ष, हिंदुस्तान को ही याद कर रहे होंगे. ये गर्भनाल वाला मामला नहीं सीधे-सीधे दिल-जिगर वाली बात है.

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