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शैक्षणिक माहौल की अक्षुण्णता

विद्यालयों का मूल कार्य तो शिक्षा और शिक्षण से जुड़ा होता है. इसे तो हर हाल में अप्रभावित रखने की व्यवस्था करनी होगी.

नयी शिक्षा नीति के तहत मध्याह्न भोजन योजना के अतिरिक्त छात्रों को विद्यालय में पौष्टिक नाश्ता देने का प्रावधान किया गया है. इसे अप्रैल, 2021 से ही नयी नीति के साथ लागू होना था, परंतु बीते वर्ष से ही कोरोना संक्रमण के कारण शिक्षा व्यवस्था चरमरा गयी है. शिक्षण संस्थान लगातार बंद हैं और छात्रों की पढ़ाई बाधित है. हमारी अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है. इससे उत्पन्न वित्तीय संकट के कारण इस योजना को लागू करने में देरी हो रही है. योजना के स्थगित होने के बावजूद इससे जुड़े तथ्यों का संज्ञान लेना आवश्यक है.

एक आकलन के मुताबिक इस योजना के लिए केंद्र सरकार को अतिरिक्त चार हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी. अभी देशभर में लगभग 11.8 करोड़ बच्चों के मध्यान्ह भोजन के लिए 11,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जाता है. पिछले वर्ष कोविड-19 के कारण विद्यालय बंद रहे, फिर भी मध्याह्न भोजन योजना का लाभ बच्चों को दूसरे रूप में दिया गया.

छात्र-छात्राओं के परिवारों को सूखा राशन मुहैया कराया गया तथा अन्य सामग्रियों- सब्जी, तेल, ईंधन वगैरह के लिए सीधे लाभ हस्तांतरण योजना के तहत नकद राशि उनके खाते में भेजी गयी. इस तरह इस योजना पर खर्च 11,000 हजार करोड़ रुपये से बढ़कर 12,900 करोड़ रुपये पहुंच गया. अब नाश्ते की नयी योजना शुरू होनी है, जिसके लिए अतिरिक्त 4000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी.

नयी शिक्षा नीति में अवधारणा यह है कि सुबह में पौष्टिक नाश्ता लेने से कठिन विषयों को भी आसानी से समझने हेतु बच्चों में संज्ञानात्मक क्षमता का तेजी से विकास होता है. पौष्टिक नाश्ता या खाना बच्चों को स्वस्थ बनाता है और एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ एवं सजग मस्तिष्क रह सकता है. इसके बावजूद इसके क्रियान्वयन से जुड़े प्रक्रियात्मक पहलू पर विचार करने की आवश्यकता है. पिछले तीन दशकों से चल रही मध्यान्ह भोजन योजना के परिणाम एवं अनुभव की कसौटी पर इसे परखना होगा.

वर्तमान मध्याह्न भोजन योजना 15 अगस्त, 1995 से चल रही है. यह मूल रूप से बच्चों को पोषणयुक्त आहार प्रदान करने, विद्यालय में उपस्थिति बढ़ाने एवं पूरे समय तक विद्यालय में रोकने के लक्ष्य के साथ शुरू की गयी थी. क्रियान्वयन में रसोइयों एवं सेविकाओं के साथ शिक्षकों की भी भूमिका निर्धारित की गयी. यह सही है कि अनेक मापदंडों पर इसमें सफलता मिली है. परंतु, यह सब कुछ किस कीमत पर हासिल हो रहा है? सभी बच्चों को विद्यालय पहुंचाना या पूरे समय तक रोकने का मकसद क्या था? कहीं इससे विद्यालय का मौलिक कार्य शिक्षा एवं शैक्षणिक माहौल तो प्रभावित नहीं हो रहा?

मध्याह्न भोजन योजना लागू होने के बाद से विद्यालयों का नजारा ही बदल गया है. ग्रामीण इलाकों में बच्चे घर से खाने का बर्तन लेकर स्कूल जाते हैं. ऐसा लगता है कि वे सामूहिक भोज में शामिल होने जा रहे हैं. कक्षा में भी बच्चों का ध्यान पढ़ाई के साथ पाकशाला की तरफ भी लगा रहता है. पंक्तिबद्ध होकर बच्चों के खाने का दृश्य किसी आपदा राहत शिविर जैसा प्रतीत होता है. भोजन के बाद अधिकतर बच्चे विद्यालय छोड़ देते हैं. बहुत से शिक्षक भी अपने दायित्वों का इतिश्री मान लेते हैं?

दूसरी तरफ, शिक्षकों को मध्याह्न भोजन योजना का प्रभारी बनाने से अनेक तरह की कठिनाइयां हैं. जब शिक्षक चावल, सब्जी, फल, अंडे आदि की खरीद एवं आपूर्ति से संबद्ध हो जाते हैं, तो उनसे शिक्षा दान में ईमानदारी एवं निष्ठा की उम्मीद किस हद तक की जा सकती है? खाद्य सामग्रियों का हिसाब-किताब में पठन-पाठन वाला दायित्व पीछे छूट जाता है. कुल मिलाकर इस योजना का प्रभाव शिक्षण व्यवस्था पर सकारात्मक नहीं दृष्टिगोचर होता है.

अब बच्चों को विद्यालय में नाश्ता देने की योजना भी नयी शिक्षा नीति के तहत अपनायी जा रही है. इसे लागू करने की प्रक्रिया के संबंध में विस्तृत विवरणी अभी उपलब्ध नहीं है, फिर भी स्पष्ट है कि अब विद्यालयों में बच्चों के लिए दो बार खाने की व्यवस्था होगी. सरकारी संस्थान होने के नाते दोनों आहारों के लिए समय भी निर्धारित रहेगा. इससे अध्यापन कार्य में व्यवधान पर भी गौर करना लाजिमी है.

मध्याह्न भोजन योजना के क्रियान्वयन से प्राप्त अनुभवों से स्पष्ट है कि खाने के साथ नाश्ता तैयार करवाने एवं वितरण में अगर शिक्षकों को शामिल किया गया, तो इसका प्रतिकूल प्रभाव शैक्षणिक माहौल पर पड़ेगा. इसमें दो राय नहीं है कि इन योजनाओं का उद्देश्य बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ा है और नयी शिक्षा नीति के तहत तो विद्यालय में सामाजिक संगठनों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से बच्चों के नियमित स्वास्थ्य परीक्षण के साथ स्वास्थ्य संबंधी अन्य सेवाएं भी उपलब्ध कराने की योजना है.

इस परिप्रेक्ष्य में इस योजना की आवश्यकता एवं उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है, परंतु विद्यालयों का मूल कार्य तो शिक्षा और शिक्षण से जुड़ा होता है. इसे तो हर हाल में अप्रभावित रखने की व्यवस्था करनी होगी. एक तरीका यह हो सकता है कि नाश्ते एवं भोजन के प्रबंधन का कार्य एक स्वतंत्र निकाय अथवा प्रणाली के माध्यम से किया जाये. शिक्षक इससे अलग रहकर सिर्फ इसकी देखभाल एवं पर्यवेक्षण का काम करें.

मध्याह्न भोजन योजना से सीधे जुड़ने से शिक्षकों को संबंधित विपत्रों के भुगतान से लेकर उसके उपयोगिता प्रमाण-पत्र बनाने एवं जमा करने के लिए शिक्षा एवं अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. चूक होने पर अनुशासनिक कार्रवाई के साथ शिक्षकों पर कानूनी कार्रवाई भी होती है. कहीं-कहीं शिक्षकों के सहजता से अनियमित कार्यों एवं गड़बड़ियों में साझीदार बन जाने की संभावना भी बनी रहती है.

इस तरह शिक्षा दान का पवित्र संस्थान अवांछित गतिविधियों का स्थान बन जाता है तथा इससे शिक्षक समुदाय की छवि खराब होती है. ऐसी परिस्थिति में उचित यही होगा कि भोजन एवं नाश्ते से जुड़े कार्यों को स्वतंत्र एजेंसी के हाथों में डालकर शिक्षकों को जिम्मेदारी एवं ईमानदारी से शिक्षण कार्य निभाने के दायित्व पर केंद्रित रखा जाये, जिससे कि विद्यालयों की गरिमा शिक्षण संस्थान के रूप में अक्षुण्ण रहे.

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