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सदन की मर्यादा

संसदीय मर्यादा को ताक पर रख कर कार्यवाही में बाधा डालना, अपशब्दों का प्रयोग करना या हिंसा करना कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है.

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि संसद और विधानसभाओं में अनुशासनहीनता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है. छह वर्ष पूर्व केरल विधानसभा में हुए हंगामे और तोड़फोड़ की घटना से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने यह टिप्पणी की. देश की सबसे बड़ी अदालत ने सही रेखांकित किया है कि सदन के भीतर ऐसी घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं और अब ऐसा संसद में भी होने लगा है.

संसद देश की और विधानसभा राज्य की सबसे बड़ी पंचायत है, जहां निर्वाचित जन प्रतिनिधि बैठते हैं. देश और देश की जनता की समस्याओं का समाधान करने तथा भविष्य की बेहतरी के लिए राह बनाने की जिम्मेदारी इन प्रतिनिधियों की होती है. सत्ता पक्ष और विपक्ष प्रस्ताव, आलोचना और चर्चा के माध्यम से निर्णय तक पहुंचते हैं. जनता को उनसे गंभीरता और जवाबदेही की अपेक्षा रहती है.

लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहस के दौरान टीका-टिप्पणी करना या कभी-कभार माहौल का तनावपूर्ण हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन संसदीय मर्यादा को ताक पर रख कर तोड़-फोड़ करना, जोर-जबरदस्ती से कार्यवाही में बाधा डालना, अपशब्दों का प्रयोग करना, अशोभनीय टिप्पणियां करना या मार-पीट करना किसी भी दृष्टिकोण से या किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता है.

एक ओर बीते सात दशकों में जहां हमारी संसदीय प्रणाली लगातार मजबूत व परिपक्व होती गयी है, वहीं दुर्भाग्य से यह भी एक सच है कि कुछ अपवादों को छोड़कर, शायद ही देश का कोई ऐसा सदन होगा, जहां कई अशोभनीय घटनाएं न हुई हों. विधानसभाओं में हुईं कुछ घटनाओं में तो मार-पीट के बाद अनेक विधायकों को अस्पताल ले जाना पड़ा था. ऐसी स्थितियों में कामकाज तो बाधित होता ही है, जनता की गाढ़ी कमाई भी बर्बाद होती है.

सांसदों और विधायकों के वेतन-भत्तों और सत्र के दौरान मिलनेवाली अतिरिक्त राशि के साथ सदन की कार्यवाही पर भी भारी खर्च होता है. एक सामान्य आकलन के मुताबिक, संसदीय सत्रों में लगभग सौ दिन कार्यवाही चलती है. छह सौ करोड़ रुपये से अधिक के कुल बजट के हिसाब से रोजाना के खर्च का अनुमान लगाया जा सकता है.

इसके आधार पर देश की कई विधानसभाओं के बजट के आकार का अंदाजा लगा सकते हैं. यदि हमारे जन-प्रतिनिधि ही संसदीय मर्यादा का उल्लंघन कर हंगामे और हिंसा का व्यवहार प्रदर्शित करेंगे, तो फिर देश की राजनीतिक संस्कृति की दिशा में भटकाव आयेगा और लोगों में गलत संदेश जायेगा. सदन की कार्यवाही में बाधा डालकर हमारे प्रतिनिधि असल में देश के विकास व भविष्य की राह को बाधित करते हैं.

लोकतंत्र के अग्रणी प्रहरी ही अपने आचरण से लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आदर्शों को चोट पहुंचायेंगे, तो फिर उनसे किसी तरह की सकारात्मक उम्मीद रखना बेमतलब है. न्यायालय ने कहा है कि ऐसे आचरण करनेवाले प्रतिनिधियों पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए. उम्मीद है कि अदालत की दो-टूक टिप्पणी से सीख लेते हुए सभी जन-प्रतिनिधि समुचित व्यवहार करेंगे.

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