पिछले साल के शुरू से कोरोना वायरस ने लगभग समूची दुनिया को प्रभावित किया है तथा यह आज भी सबसे गंभीर मसला बना हुआ है. आंकड़े इंगित करते हैं कि कई अन्य देशों की तुलना में भारत पर इसका असर अधिक पीड़ादायी रहा है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के स्तर पर भारत की अर्थव्यवस्था में वित्त वर्ष 2020-21 में 7.3 प्रतिशत का संकुचन हुआ है, जो स्वतंत्रता के बाद सर्वाधिक गिरावट है.
लगभग सभी बड़े देशों और पड़ोसियों की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था पर महामारी का नकारात्मक प्रभाव बहुत अधिक पड़ा है. पिछले वित्त वर्ष में विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि दर प्रतिशत में इस प्रकार रही है- बांग्लादेश (+3.8), भूटान (-0.8), चीन (+2.3), म्यांमार (+3.2), नेपाल (-1.9), पाकिस्तान (-0.4), श्रीलंका (-3.6) तथा अमेरिका (-3.5). हमने 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की राह में मार्च, 2020 तक तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की आकांक्षा की थी.
अर्थव्यवस्था में नुकसान के साथ जीवन पर भी बहुत ज्यादा असर पड़ा है. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जून के अंत तक कोरोना से लगभग चार लाख लोगों की मौत हो चुकी है तथा संक्रमितों की संख्या 30 लाख से ऊपर है. पड़ोसी देशों की तुलना में हमारी स्थिति अधिक खराब है. प्रति दस लाख लोगों पर 29 जून तक संक्रमण और मृत्यु की दर क्रमश: इस प्रकार हैं- भारत (संक्रमण- 21767, मृत्यु- 286), बांग्लादेश (संक्रमण- 5392, मृत्यु- 46), भूटान (संक्रमण- 2662, मृत्यु- 01), चीन (संक्रमण- 64, मृत्यु- 03), म्यांमार (संक्रमण- 1819, मृत्यु- 60), नेपाल (संक्रमण- 21478, मृत्यु- 306), पाकिस्तान (संक्रमण- 4248, मृत्यु- 99), श्रीलंका (संक्रमण- 11944, मृत्यु- 1861) तथा अमेरिका (संक्रमण- 103663, मृत्यु- 1861).
दूसरी लहर भारत के लिए बेहद घातक साबित हुई है. सरकारी जानकारी के मुताबिक, अप्रैल और मई के दो महीनों में कोरोना ने ढाई लाख लोगों का जीवन छीन लिया, जो समूचे पिछले साल के आंकड़े के दोगुने से भी अधिक है, लेकिन जैसा कि कई अखबारों ने जाहिर किया है, आधिकारिक आंकड़े असल में हुई मौतों की संख्या से बहुत कम हैं. एक सदी से कुछ अधिक समय पहले 1918 में आयी ऐसी ही महामारी के कारण 1921 की जनगणना में देश की आबादी 25.13 करोड़ हो गयी थी, जो 1911 में 25.21 करोड़ थी.
इसके अलावा सभी दशकों में आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गयी है. यह वर्ष जनगणना के लिए निर्धारित है, पर महामारी की वजह से इसकी प्रक्रिया शुरू नहीं हो सकी और अब यह स्थिति सामान्य होने पर ही की जा सकेगी. तब उसके नतीजे मौतों के बारे में कुछ संकेत दे सकेंगे. लेकिन यह तथ्य तो है कि इस साल वायरस की आक्रामकता ने अस्पतालों में अफरातफरी मचा दी थी और जरूरी दवाओं, ऑक्सीजन व चिकित्साकर्मियों की बड़ी कमी हो गयी थी. यहां तक कि शवगृह व श्मशान भी बड़ी संख्या में लाशों के भार को संभाल नहीं पा रहे थे. बाद में कई शव गंगा नदी के किनारे बालू में दफन मिले थे. स्पष्ट है कि कोरोना से हुई बहुत सी मौतों का संज्ञान नहीं लिया गया है.
भारत के बहुत अधिक पीड़ित होने के कारणों का संकेत स्थिति को संभालने के हमारे तौर-तरीकों में मिलता है. पिछले साल कुछ घंटों की सूचना पर लंबे समय के लिए लॉकडाउन लगा दिया गया था. इसके पीछे कोई योजना न होने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ, जबकि इस साल देर से लॉकडाउन लगाने से वायरस को फैलने का मौका मिल गया. इसके साथ, पांच राज्यों में अबाधित विधानसभा चुनाव प्रचार और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव तथा हरिद्वार में कुंभ जैसे आयोजन तब हुए, जब संक्रमण बढ़ रहा था.
वायरस के प्रसार में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा. दूसरी लहर उतार पर है, लेकिन तीसरी लहर का खतरा इस आशंका के साथ मौजूद है कि उसके सबसे अधिक शिकार बच्चे हो सकते हैं. टीकाकरण एकमात्र उपचार है और केवल वही जीवन और जीवनयापन के साधनों की रक्षा कर सकता है तथा हमें सामान्य स्थिति की ओर ले जा सकता है.
यह अफसोसनाक है कि बाकी दुनिया की तरह भारत में भी मध्य जनवरी में टीकाकरण अभियान शुरू होने के बावजूद अभी तक आबादी के पांच फीसदी हिस्से को भी दोनों खुराक नहीं दी जा सकी है. प्रति सौ लोगों को टीके की खुराक देने के मामले में 201 देशों में भारत 114वें स्थान पर है. और ऐसा तब है, जब हमने इस मद के लिए आवंटन भी तय कर दिया था और देश में दुनिया का सबसे बड़ा टीका निर्माण इंफ्रास्ट्रक्चर है.
पिछले साल कोविड के कहर से पीड़ित होने के बाद कई देशों ने टीकाकरण को अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाया था. अब वे अपने मास्क फेंक रहे हैं और गिरावट की भरपाई के लिए अर्थव्यवस्था को खोल रहे हैं. वे बच्चों को टीका देने तथा खुराक ले चुके लोगों को बूस्टर डोज देने की दिशा में अग्रसर हैं ताकि सामूहिक रोग निरोधक क्षमता हासिल हो.
हमारे पास पारदर्शी कार्यक्रम के साथ टीकाकरण तेज करने का ही एकमात्र विकल्प है. हमें वैक्सीन से परहेज की मानसिकता, खासकर शहरी व ग्रामीण गरीबों में, से भी छुटकारा पाना है. केंद्र व राज्य सरकारों तथा नागरिक समाज को आपसी मतभेद भुलाकर युद्ध स्तर पर टीकाकरण पर जोर देना चाहिए.