हाल ही में जी-7 देशों- अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, जर्मनी, इटली, फ्रांस और जापान- का शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ. इसके सम्मेलनों में स्थायी आमंत्रित के रूप में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि भी शामिल होते हैं. इस वर्ष के मेजबान इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने चार देशों- भारत, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका- को भी आमंत्रित किया था.
रूस 1997 से 2014 तक जी-7 का औपचारिक सदस्य रहा, लेकिन इसमें चीन को कभी शामिल या आमंत्रित नहीं किया गया है. पिछले सम्मेलनों में चीन पर चर्चा भी नहीं के बराबर ही होती थी. लेकिन इस बार लगभग सारी चर्चा चीन पर ही केंद्रित रही.
जानकारों का कहना है कि इस सम्मेलन में ‘3-सी’ यानी कोरोना, क्लाइमेट (पर्यावरण) और चीन छाये रहे. चीन विरोधी सुरों के कई उदाहरण इस सम्मेलन में मिलते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना महामारी से निपटने हेतु लोकतांत्रिक और पारदर्शी राष्ट्रों की भूमिका पर बल दिया, जिसका सीधा मतलब यह था कि समाधान में हमें चीन से कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि चीन न तो लोकतांत्रिक है और न ही पारदर्शी. सम्मेलन में महामारी के उद्गम की जांच हेतु प्रयास तेज करने पर भी जोर दिया गया.
बाइडेन प्रशासन के एक आला अधिकारी ने चीन के अपारदर्शी, कमजोर पर्यावरण, श्रम मानकों और जोर-जबरदस्ती वाले व्यवहार का जवाब देने की जरूरत पर बल दिया, जिसके कारण दूसरे मुल्कों को भारी नुकसान हो रहा है. हांगकांग की स्वायत्तता, चीन के शिनजियांग प्रदेश में मानवाधिकार और ‘ताइवान स्ट्रेट’ के आसपास शांति और स्थिरता के मुद्दों को भी उठाया गया. ऐसे में सम्मेलन को ऐतिहासिक माना जा सकता है.
दुनियाभर में लोग चीन को इस महामारी का कारण मान रहे हैं, लेकिन पहली बार इस सम्मेलन में महसूस हुआ कि शक्तिशाली देश पूरे जोश से चीन के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं, और उन मुद्दों को केंद्र में लाया जा रहा है, जो चीन के कम्युनिस्ट शासकों को बिल्कुल पसंद नहीं. यह बात भी महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ समय से चीन को अरब महासागर और प्रशांत महासागर में चुनौती देने के उद्देश्य से अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया का समूह ‘क्वाड’ सैन्य अभ्यास कर रहा है.
चीन की बढ़ती समुद्री ताकत को इससे अंकुश लगा है. यह न केवल भारत को समुद्र से चीन से मिलने वाली चुनौती का एक सशक्त जवाब है, बल्कि प्रशांत महासागर क्षेत्र में शांति और स्थिरता की महत्वपूर्ण शर्त भी है. इस संबंध में ताइवान की सुरक्षा हेतु जी-7 सम्मेलन का स्पष्ट वक्तव्य चीन को सीधा चुनौती देनेवाला है.
चीन पिछले कई सालों से बेल्ट रोड परियोजना को आगे बढ़ा रहा है, जिस पर 100 से अधिक मुल्कों ने हस्ताक्षर किया है. इनमें न केवल जी-7 से इटली शामिल है, बल्कि विशेष आमंत्रित सदस्यों से दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण कोरिया भी हैं. जी-7 शिखर सम्मेलन में इसके मुकाबले ‘बी 3 डब्लू’ (बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड) पहल का उद्घोष हुआ. गौरतलब है कि यह इंफ्रास्ट्रक्चर योजना अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा आगे बढ़ायी जा रही है.
अमेरिका और भारत दोनों ही चीनी परियोजना के विरोधी रहे हैं, लेकिन इसे रोक पाना दो वर्ष पहले तक लगभग असंभव प्रतीत हो रहा था. ऐसे में जी-7 का प्रयास एक बड़ी पहल माना जा रहा है. यह इंगित करना जरूरी है कि यदि चीन की महत्वाकांक्षी योजना पर अंकुश लगता है और अमेरिका समर्थित ‘बी 3 डब्लू’ को बढ़ावा दिया जाता है, तो भारत को रणनीतिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी बड़ा लाभ मिल सकता है.
चीनी परियोजना में सिर्फ चीन के बैंकों और संस्थाओं (अधिकांश सरकारी) और चीनी निर्माण कंपनियों का ही बोलबाला था. अपारदर्शी और विभेदकारी समझौतों के चलते उसमें शामिल देशों पर न केवल कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था, बल्कि चीन का राजनीतिक दखल भी उन देशों में बढ़ गया था. ऐसे में अधिक पारदर्शी ‘बी 3 डब्लू’ उन देशों के लिए लाभकारी होगा ही, भारत की निर्माण कंपनियों को भी बड़ा बिजनेस मिलेगा और वैश्विक आर्थिक विकास को गति मिलेगी. इससे चीन के दबदबे को भी विराम लगेगा.
काफी समय से चीन औद्योगिक उत्पादन के माध्यम से दुनिया के बाजारों पर कब्जा तो करता ही जा रहा था, अपनी बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के बलबूते अपने पड़ोसी देशों को भी डरा-धमका कर उनकी भूमि हथियाने का प्रयास कर रहा था. उसके सभी पड़ोसी देश जो अभी तक भयभीत थे, चीन को मिलती चुनौती के मद्देनजर अब संबल प्राप्त करेंगे. पिछले लगभग पांच वर्षों से अमेरिका व भारत समेत कई देश अपने उद्योगों और अर्थव्यवस्था के प्रति अधिक संवेदनशील और संरक्षणकारी हो रहे हैं. भारत में ‘मेक इन इंडिया’ और पिछले एक साल से ‘आत्मनिर्भर भारत’ का प्रयास चीन पर निर्भरता कम करने के लिए ही है. ऐसे में अब चीन को अपने निर्यातों को बरकरार रखना आसान नहीं होगा.
पिछले कुछ समय से चीन अपनी शक्ति और दबदबे के चलते अधिक दंभी भी हो गया था, लेकिन दुनिया का आक्रामक रुख देखकर अब उसने अपना रुख भी थोड़ा नरम किया है, ताकि वह अपने प्रति बढ़ते हुए रोष को कम कर सके. कहा जा सकता है कि दुनिया में चीन के खिलाफ बढ़ती लामबंदी चीन के लिए शुभ संकेत नहीं है. उसे अपनी हेकड़ी, आर्थिक और सैन्य आक्रामकता पर विराम लगाना पड़ेगा. शायद यही दुनिया में शांति का मार्ग प्रशस्त करेगा.