बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति को अपने सियासी दांव से प्रभावित करने वाले राजद नेता लालू प्रसाद यादव ने कभी रामविलास पासवान को मौसम वैज्ञानिक का नाम दिया था. दरअसल ऐसा माना जाता रहा कि लोजपा के संस्थापक व पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान सियासी तापमान को बहुत अच्छी तरह भांप लेते थे. सियासी चाल में उन्हें कभी निराश नहीं होना पड़ता था. वहीं अगर पार्टी के अंदर कुछ अनबन होती तो बेहद आसानी से उसका समाधान निकाल देते. लेकिन इस कला में उनके बेटे चिराग पासवान सफल नहीं हुए. पहली बार लोजपा में बड़ी टूट हुई है और दल के सभी सांसदों ने चिराग के खिलाफ बगावत कर दी है. जिसमें उनके चाचा पशुपति कुमार पारस भी शामिल हैं.
रामविलास पासवान का देहांत हाल में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के शुरू होने के ठीक पहले हो गई थी. जिसके बाद पार्टी से जुड़े सारे फैसले उनके बेटे चिराग पासवान के हाथों में आ गए. रामविलास पासवान के बाद लोजपा के नेतृत्व को लेकर हमेसा एक कमी दिखती रही. कई बार पार्टी का अंर्तकलह बाहर आता रहा लेकिन उसपर पर्दा ढका जाता रहा. आखिरकार रविवार को बड़ा सियासी भूचाल मचा और रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस ने बांकी 4 सांसदों के साथ अलग मोर्चा खोलकर चिराग को पार्टी की गद्दी से उतार दिया.
लोजपा में फूट के बाद चिराग अब अकेले दिखने लगे हैं. रविवार देर रात तक उन्होंने काफी प्रयास किया कि सांसद वापस उनके साथ हो जाएं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वहीं सोमवार को वो पशुपति कुमार पारस के घर भी पहुंचे और मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, वो राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटने को तैयार हैं लेकिन उन्होंने अपनी मां रीना पासवान को यह पद देने का प्रस्ताव सामने रखा है. इसपर फैसला होना बांकि है.
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लोजपा की ताकत हमेसा रामविलास पासवान के इर्द गिर्द ही रही. वहीं दल को सही तरीके से चलाने के लिए उन्होंने हमेसा अपने भाइ को उचित सम्मान दिया. अपने हर फैसले में वो पार्टी के अन्य सदस्यों को अपने विश्वास में लेते थे. अगर कोई उनके फैसले से नाखुश होते थे तो रामविलास पासवान उन्हें मनाते और आखिरकार अपने साथ कर लेते. सूबे की राजनीति में रामविलास पासवान हमेसा गंभीर रहते. सियासी फैसले लेने में उनसे चूक नहीं होती थी. भले ही वो कम ही सीटें जीतकर आए लेकिन बंगले की नींव को हमेसा मजबूत बनाए रखते.
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के दौरान जब रामविलास पासवान का निधन हुआ तो चिराग ने मोर्चा थामा. बिहार में नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए और तेजस्वी यानी राजद के नेतृत्व में महागठबंधन के बीच सीधी टक्कर थी. इस दौरान चिराग ने लोजपा को एनडीए से अलग ही नहीं किया बल्कि नीतीश कुमार पर जमकर हमला बोला. उन्होने लोजपा का मकसद नीतीश कुमार को बिहार की सत्ता से हटाना ही तय कर लिया. कहा जाता है यह फैसला ना तो पशुपति पारस को पसंद था और ना ही पार्टी के अधिकतर नेताओं को. फूट के बाद अब अन्य सांसदों ने भी नीतीश कुमार को विकास पुरूष बताया है.
वहीं लोजपा के इकलौते विधायक भी जदयू में शामिल हो चुके थे. मटिहानी से जीतकर आए इकलौते विधायक राजकुमार सिंह ने हाल में जदयू ज्वाइन कर लिया था. इससे पहले बिहार विधान परिषद में लोजपा की एकमात्र विधान पार्षद नूतन सिंह भी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गई थीं.
दूसरी तरह रामविलास पासवान हमेसा अपने भाइ पशुपति पारस का महत्व समझते रहे. उन्हें पार्टी के हर फैसले में शामिल करते रहे. लेकिन चिराग उनका महत्व भूल बैठे. चिराग ने उन्हें बिहार के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर दलित मोर्चा की कमान सौंप दी. इस मोर्चा का आज के दौर में कोई खास महत्व नहीं रहा. इस तरह देखा जाए तो यह कद घटाने और साइड करने का ही संकेत था. लेकिन पशुपति पारस की राजनीतिक नींव इतनी हल्की नहीं थी. ये इस तरह समझा जा सकता है कि सांसद बनने से पहले वो बिहार की नीतीश सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. वह अलौली विधानसभा से पांच बार विधायक रह चुके हैं. सन 1977 में ही पशुपति पारस ने अपना पहला विधानसभा चुनाव जीता. वो रामविलास पासवान के साथ साये की तरह रहते थे.
पार्टी सूत्रों की मानें तो रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा में पुराने नेताओं को तहरीज दी जाती थी. पशुपति पारस हों या फिर सूरजभान सिंह, ये सभी नेता पार्टी के फैसले में अहम योगदान देते थे. लेकिन चिराग पासवान ने ना तो पुराने नेताओं के सम्मान का ख्याल रखा और ना हीं सियासी तापमान को देखकर कोई उचित फैसला लिया.
एनडीए के कई नेताओं का मानना है कि चिराग के कारण ही राजद को पांव पसारने का मौका मिला. वहीं अब जब मोदी कैबिनेट विस्तार में लोजपा को भी जगह देने की बात सियासी गलियारे में चली तो चिराग का मंत्री बनना लगभग तय माना जा रहा था. इससे ठीक पहले अब पशुपति पारस ने वो दांव खेल दिया है जिससे इसकी उम्मीदें अब ना के ही बराबर है.
POSTED BY: Thakur Shaktilochan