अखाड़ों में दूसरे पहलवानों को चित्त करना हर पहलवान का सपना भी होता है और साधना भी, लेकिन जिंदगी के अखाड़े में चित्त होना सपने और साधना का चूर-चूर हो जाना होता है. यह निहायत ही अपमानजनक पतन होता है. पहलवान सुशील कुमार उपलब्धियों के शिखर से पतन के ऐसे ही गर्त में गिरे हैं. साल 2008 के बीजिंग ओलंपिक में कांस्य पदक, 2012 के लंदन ओलंपिक में रजत पदक जीतने तथा दूसरी कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में बारहा सफल रहनेवाले सुशील कुमार यह भूल ही गये कि खेल खेल ही होता है,
सारा जीवन नहीं, वे भूल ही गये कि पहलवानी के अखाड़े में दांव-पेंच खूब चलते हैं, पर जीवन के अखाड़े में सबसे अच्छा दांव-पेंच एक ही है- सीधा, सच्चा व सरल रहना. यह आसान रास्ता जो भूल गया, उसे जमाना भी भूल जाता है. लेकिन बात किसी एक सुशील कुमार या कुछ पहलवानों की ही नहीं है. खेल के साथ जैसा खेल हम खेल रहे हैं, बात उसकी है. जब सारी दुनिया में कोविड की आंधी बह रही है, जापान में ओलंपिक का आयोजन होना है.
खिलाड़ी यहां से वहां भाग रहे हैं, भगाये जा रहे हैं और निराश हो रहे हैं. कई कोविड के शिकार हुए हैं, फिर भी ओलंपिक की तैयारी जारी है. इसे पिछले साल जुलाई में होना था. कोविड ने संसार को जो कई नये पाठ पढ़ाये हैं, उनमें एक यह भी है कि धरती का हमारा यह घोंसला बहुत छोटा है.
पिछले साल ही घोषणा कर दी जानी चाहिए थी कि ओलंपिक को अनिश्चित काल के लिए स्थगित किया जाता है. कोविड से निपट लेंगे, तब इसकी सोचेंगे. लेकिन ऐसा नहीं किया गया और नयी तारीख तय कर दी गयी- 25 जुलाई से आठ अगस्त, 2021. बता रहे हैं कि 17 बिलियन डॉलर दांव पर लगा है. यह पैसा भले जापान की जनता का है, निकला तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय धनपशुओं की जेब से है. उनका पैसा जब खतरे में पड़ता है, ये बेहद खूंखार हो उठते हैं. यही जापान में हो रहा है. रोज प्रदर्शन हो रहे हैं, कई खिलाड़ी, अधिकारी, डॉक्टरों के संगठन और समाजसेवी भी कह रहे हैं कि ओलंपिक रद्द किया जाना चाहिए.
जापान में कोई 13 हजार लोगों की कोविड से मौत हो चुकी है और रोजाना तीन हजार नये मामले आ रहे हैं. वहां टीकाकरण की गति दुनिया में सबसे धीमी मानी जा रही है. हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि संक्रमण की दवा नहीं होती, रोक-थाम होती है. अब तराजू के एक पलड़े पर 17 बिलियन डॉलर है, जिसके 70 बिलियन बनने की संभावना है, दूसरे पलड़े पर लाखों लाशें हैं, जिनके अनगिनत हो जाने की आशंका है. बस, यहीं खेलों के प्रति नजरिये का सवाल खड़ा होता है. खेलों को हमने खेल रहने ही नहीं दिया है, व्यापार की शतरंज में बदल दिया है, जिसमें खिलाड़ी प्यादे से अधिक की हैसियत नहीं रखता है.
प्यादा भी जानता है कि नाम व नामा कमाने का यही वक्त है, जब अपनी चल रही है. इसलिए हमारे खिलाड़ियों के पैमाने बदल गये हैं. क्रिकेट का आइपीएल कोविड की भरी दोपहरी में हम चलाते ही जा रहे थे न! बायो बबल में बैठे खिलाड़ी उन स्टेडियमों में चौके-छक्के मार रहे थे, जिसमें एक परिंदा भी नहीं बैठा था. खेल का मनोरंजन और सामूहिक आह्लाद से कोई नाता है, यह बात तो सिरे से गायब थी, लेकिन पैसों की बारिश तो हो ही रही थी.
लेकिन जिस दिन बायो बबल में कोई छिद्र हुआ, दो-चार खिलाड़ी संक्रमित हुए, दल-बल समेत सारा आइपीएल भाग खड़ा हुआ. अपनी जान और समाज की सामूहिक जान के प्रति रवैया कितना अलग हो गया! अब सारे खेल-व्यापारी इस जुगाड़ में लगे हैं कि कब, कैसे और कहां बाकी मैच हों ताकि अपना फंसा पैसा निकाला जा सके. यह खेलों का अमानवीय चेहरा है.
खेल का, स्पर्धा का आनंद मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है. खेल सामूहिक आह्लाद की सृष्टि करते हैं. लेकिन खेल अनुशासन और सामूहिक दायित्व की मांग भी करते हैं. इसे जब आप पैसों के खेल में बदल देते हैं, तब इसकी स्पर्धा राक्षसी और इसका लोभ अमानवीय बन जाता है. यह सब खेलों को निहायत ही सतही व खोखला बना देता है.
इसमें खिलाड़ियों का हाल सबसे बुरा होता है. जो नकली है, उसे वे असली समझ लेते हैं. वे अपने पदक को मनमानी का लाइसेंस मान लेते हैं. कुश्ती की पटकन से मिली जीत को जीवन में मिली जीत समझ बैठते हैं. जो इस चमक-दमक को पचा नहीं सके और खिलने से पहले ही मुरझा गये, ऐसे खिलाड़ियों, प्रशिक्षकों व अधिकारियों की सूची बहुत लंबी है.
सुशील कुमार ने अपनी सफलता को मनमानी का लाइसेंस समझ लिया. खेल के सारे व्यापारियों ने उसकी इस समझ को सुलझाया नहीं, बल्कि भटकाया और बढ़ाया. अब हम देख रहे हैं कि सुशील कुमार पर हत्या का ही आरोप नहीं है, बल्कि अपराधियों के साथ उनका नाता भी था. हमारी सामाजिक प्राथमिकताएं और नैतिकता की सारी कसौटियां जिस तरह बदली गयी हैं, उसमें हम ऐसी अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि खेल व खिलाड़ी इससे अछूते रह जाएं? लेकिन जो अछूता नहीं है, वह अपराधी नहीं है, ऐसा भी कौन कह सकता है!