पटना. बायोटेक्नोलॉजी के विशेषज्ञों का मानना है कि कोविशील्ड ने अधिकतम रिस्पॉन्स रेट बढ़ाने के लिए पहले और दूसरे टीके के बीच की समयावधि चार हफ्ते से बढ़ा कर बारह हफ्ते की है. यह वैज्ञानिक रणनीति है.
पटना विश्वविद्यालय में वायरोलॉजी/ टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर डॉ बीरेंद्र प्रसाद ने बताया कि वैज्ञानिकों ने पहली खुराक का वैज्ञानिक विश्लेषण करके यह निर्णय लिया है. वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की सलाह के मुताबिक ही टीका लेना चाहिए.
विज्ञानियों को लगा है कि पहले और दूसरे टीके में अंतर करके ज्यादा बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकते हैं. बताया कि कोवैक्सीन के साथ ऐसा नहीं है. स्पैन और यूनाइटेड किंगडम में ऐसा पहले से है.
कहा कि सभी टीकों की गुणवत्ता में आंशिक अंतर है. दरअसल दोनों ही टीके प्राणरक्षक हैं, दोनों के रिस्पॉन्स अभी तक शानदार रहे हैं. कोरोना अपना रूप लगातार बदलेगा? ऐसे में हमें वैक्सीन भी अपडेट करनी पड़ सकती है.
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पहली वैक्सीन 1935
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दूसरी वैक्सीन 1952
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तीसरी वैक्सीन 1962
इन्फ्लुएंजा : डेवलपमेंट के स्टेज
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पहली वैक्सीन 1937
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दूसरी वैक्सीन 2003
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तीसरी वैक्सीन 2012
इस वायरस को रोकने के लिए तीन ट्रायल के बाद मंजूरी दी गयी है. सामान्य तौर पर छह ट्रायल किये जाते हैं.
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कोविशील्ड वैक्सीन चिम्पांजी के इन्फ्लुएंजा वायरस से बनायी गयी है. चिंपाजी में पाये जाने वाले वायरस को इसमें कैरियर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यह भी निष्क्रिय वायरस होता है.
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कोवैक्सीन निर्माण में कोरोना वायरस का निष्क्रिय मॉडल लिया गया है. वह भी शरीर में कैरियर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
वैक्सीन वायरस की निष्क्रिय फॉर्म का ही रासायनिक रूप है. वायरस के निष्क्रिय मॉडल को शरीर के अंदर लिक्विड फॉर्म में भेजा जाता है. शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली इसे वायरस समझ कर उससे लड़ने वाली एंटीजन और एंटीबॉडी पैदा कर देती है.
वायरस निष्क्रिय होता है, इसलिए रोग पैदा नहीं करता. जब असल वायरस शरीर में जाता है, तो अपने से दोगुनी ताकत युक्त रोग प्रतिरोधक प्रणाली से मुकाबला होता है, उसमें वह कमजोर हो जाता है. इससे रोगी की जान बच जाती है.
Posted by Ashish Jha