प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ केके अग्रवाल के बारे में यह अक्सर कहा जाता है कि उनकी सकारात्मक बातचीत से उनसे मिलने के बाद गंभीर बीमारी से ग्रसित रोगी को भी उम्मीद मिल जाती थी. उसे भरोसा हो जाता था कि वह बीमारी को मात दे देगा. पर इस महामारी ने उन्हें हमसे छीन लिया. पिछले लगभग एक वर्ष से भी अधिक समय से वे प्रतिदिन लगभग आठ-दस घंटे ऑनलाइन रहते हुए कोरोना संक्रमण के बारे में लोगों का ज्ञानवर्द्धन करते रहे. यह कल्पना करना भी कठिन था कि सभी को महामारी का बहादुरी से सामना करने का संदेश देनेवाला डॉक्टर स्वयं इससे पराजित हो जायेगा.
डॉ केके अग्रवाल लगातार तीन दशकों से भी अधिक समय से देश में स्वास्थ्य के प्रति जनचेतना बढ़ाने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जन-जन तक पहुंचाने का ठोस प्रयास करते रहे थे. उन्होंने आधुनिक चिकित्सा को भारतीय दर्शन से जोड़ा. डॉ अग्रवाल ने दिल्ली और देश के अन्य भागों में स्वास्थ्य मेले आयोजित कराकर आम लोगों के बीच दिल से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता पैदा करने का अभियान चलाया.
वे उन डॉक्टरों से नाराज रहते थे, जो रोगी को टेस्ट पर टेस्ट कराने की सलाह देते हैं. वे निजी बातचीत में कहते थे कि कुछ चिकित्सक जल्दी से पैसा कमाने के चक्कर में रोगी को ग्राहक मानने लगे हैं. इसी वजह से ही डॉक्टरों और रोगियों के आपसी संबंध पहले जैसे मधुर नहीं रहे. दोनों के बीच अविश्वास पैदा हो गया है. डॉक्टरों का समाज में पहले जैसा सम्मान भी नहीं रहा है. उन्होंने बहुत अधिक टेस्ट कराने के चलन और मेडिकल पेशे में बढ़ती अनैतिकता के सवालों को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) का अध्यक्ष रहते हुए भी उठाया था. वे सच में बहुत निर्भीक थे. उन्होंने इस बात की कतई परवाह नहीं की कि उनसे उनके ही पेशे के लोग खफा हो जायेंगे.
डॉ अग्रवाल नागपुर से पढ़ाई करने के बाद दिल्ली के मूलचंद अस्पताल से जुड़े. यह अस्सी के दशक की बात है. उन्हें इस अस्पताल से डॉ कृष्ण लाल चोपड़ा ने जोड़ा था, जो विश्व विख्यात लेखक और मोटिवेशन गुरु डॉ दीपक चोपड़ा के पिता थे. मूलचंद अस्पताल को अमीरों का अस्पताल माना जाता है, पर वे आम जन के लिए फोन पर या अपने चैंबर पर हमेशा उपलब्ध रहते थे.
वे जितने रोगियों को रोज देखते थे, उनमें से आधे से कोई फीस नहीं लेते थे. कभी कभी लगता था कि उनका पैसा कमाने को लेकर कोई मोह ही नहीं है. अगर वे चाहते, तो कॉर्पोरेट अस्पताल खोल सकते थे, लेकिन जीवन को लेकर उनकी सोच अलग थी. वे साल में करीब एक सौ हेल्थ कांफ्रेस में भाग लेते ही थे और अपना पर्चा पढ़ते थे. इतनी व्यस्तताओं के बावजूद वे फोन पर या ऐसे किसी के लिए भी उपलब्ध रहते थे और किसी को भी अपना फोन नंबर भी दे देते थे.
डॉ केके अग्रवाल अपने साथी डॉक्टरों से अपेक्षा करते थे कि वे नयी अनुसंधानों की जानकारी रखें और खुद भी नये अनुसंधान करें. उनका मानना था कि रोगी का इलाज करना पर्याप्त नहीं माना जा सकता तथा हर डॉक्टर को अपने काम और सोच का विस्तार करना होगा.
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यह निर्णय कर पाना आसान नहीं होगा कि डॉक्टर अग्रवाल पहले एक सुयोग्य चिकित्सक थे या फिर एक कर्मठ समाजसेवी. वे अकेले दम पर हेल्थ मेला आयोजित कर जनता को स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे. उन्होंने लोगों को सूचनाएं व सलाह देने के लिए जनसंचार माध्यमों का भी बखूबी इस्तेमाल किया.
डॉ केके अग्रवाल का असमय निधन से देश और उनके चाहनेवालों ने एक कुशल चिकित्सक, बड़ी सोचने रखनेवाला, हर समय नया करने व सीखने को तत्पर, हमदर्द, दोस्त और जिंदादिल इंसान खो दिया है. वे जीवन की अंतिम सांस तक लोक सेवा में लीन रहे. शीर्ष नागरिक सम्मान पद्मश्री एवं कई पुरस्कारों से नवाजे गये डॉ अग्रवाल जैसे जीवंत व्यक्तित्व और समर्पित चिकित्सक की कमी लंबे समय तक खलेगी.
विवेक शुक्ला
वरिष्ठ पत्रकार
vivekshukladelhi@gmail.com