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दूसरा, राज्य सरकारों से असंतुष्ट मतदाता विश्वसनीय नये विकल्पों की अनुपस्थिति में उन पुराने विकल्पों से कैसा सलूक करते हैं, जिनको वे पहले खारिज कर चुके हैं और जिन्हें लेकर उनका मन अभी भी साफ नहीं है? उनकी कसौटी पर कोई दल खरा नहीं उतरता, तो क्या वे इस आधार पर फैसला करते हैं कि किसने उन्हें ज्यादा सताया है और किसने कम? तीसरा, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग ढंग से प्रदर्शित होनेवाला उनका विवेक फिलहाल कितना परिपक्व हो चुका है?

इन विधानसभा चुनावों में मतदाताओं से मोटे तौर पर ग्यारह सवालों के जवाबों की अपेक्षा थी. पहला, देश का जन स्वास्थ्य भीषण आपदाओं से दो चार हो, यहां तक कि अर्थव्यवस्था भी उसके कहर से नहीं बच पा रही हो, तो विभाजनकारी शक्तियों के हाथों दूषित मतदाताओं की चेतना अपने दूषणों से मुक्ति की ओर बढ़ती है या उनके शिकंजे में और कस जाती है?

दूसरा, राज्य सरकारों से असंतुष्ट मतदाता विश्वसनीय नये विकल्पों की अनुपस्थिति में उन पुराने विकल्पों से कैसा सलूक करते हैं, जिनको वे पहले खारिज कर चुके हैं और जिन्हें लेकर उनका मन अभी भी साफ नहीं है? उनकी कसौटी पर कोई दल खरा नहीं उतरता, तो क्या वे इस आधार पर फैसला करते हैं कि किसने उन्हें ज्यादा सताया है और किसने कम? तीसरा, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग ढंग से प्रदर्शित होनेवाला उनका विवेक फिलहाल कितना परिपक्व हो चुका है?

चौथा, किसान आंदोलन के नेताओं की भाजपा को वोट न देने की अपील कितनी रंग लायेगी. पांचवां, क्या देश के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र के घटते योगदान और किसानों की वर्गीय अनुपस्थिति के बावजूद विधानसभा चुनाव में किसान-मिथ निर्णायक सिद्ध हो सकता है? छठा, लगातार नीति व विचारहीन और व्यक्ति केंद्रित होती जाती राजनीति का डर मतदाताओं को नये राजनीतिक प्रयोगों का हिस्सा बनने से कब तक रोके रहेगा?

सातवां, सारे कुंएं में भांग जैसी स्थिति में भी मतदाता अपने सरोकारों के पक्ष में खड़े रह पाते हैं या किसी चहेते राजनीतिक दल की लहर में बह कर ‘धर्मों, शीलों व सदाचारों’ पर एक ही भांति पादप्रहार करने लग जाते हैं? आठवां, चुनावों का अंपायर चुनाव आयोग किसी पक्ष से खिलाड़ी की भूमिका में उतर आये, तो मतदाताओं में किसी तरह का रोष या क्षोभ पैदा होता है अथवा वे इस तर्क की छाया में बने रहते हैं कि भला अब कौन-सी ऐसी पार्टी है, जो चुनावों में लोकतांत्रिक मूल्यों, सिद्धांतों और तरीकों के भरोसे बैठी रहे?

नौवां, क्या अब चुनावों में हमेशा के लिए सब कुछ प्रबंधन के हवाले हो गया है और मतदाताओं के स्वतःस्फूर्त प्रवाह गुजरे जमाने की चीज हो गये हैं? दसवां, प्रायोजित महानायकत्व की उम्र कितनी होती है? ग्यारहवां, क्या किन्हीं राज्यों के चुनाव नतीजों को केंद्र सरकार की लोकप्रियता या अलोकप्रियता का मापक माना जा सकता और उसकी नीतियों पर मुहर लगने या न लगने के रूप में देखा जा सकता है?

मतदाताओं ने अपने तईं इन सवालों के जो जवाब दिये हैं, उनकी कई व्याख्याएं हो सकती हैं. लेकिन हर व्याख्या की शुरुआत यहीं से करनी होगी कि पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक नहीं सुनी. उन्होंने इस राज्य के चुनाव को ‘ममता बनाम मोदी’ में बदल दिया था और ‘दीदी-ओ-दीदी’ का जाप-सा करते हुए ‘अशोल पोरिबर्तन’ का आह्वान कर रहे थे. लेकिन मतदाताओं ने इसे नकारकर ममता के जवाबी आह्वान के तहत खेला कर दिखाया.

यकीनन, ममता ने सीधे मुकाबले में सिर्फ भाजपा को नहीं हराया, अपने चिर प्रतिद्वंद्वी वामदलों, कांग्रेस व अन्यों के साथ अपनी पार्टी के उन बागियों को भी भू-लुंठित कर डाला है, जिन्होंने राज्य के राजनीतिक प्रवाह का गलत आकलन कर भाजपा का दामन थाम लिया था. एक और अहम संदेश यह है देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों को आत्ममंथन की जरूरत है, हालांकि इससे वे प्रायः इनकार करती रही हैं.

आत्ममंथन की सबसे बड़ी जरूरत कांग्रेस को है, जो सत्ता से बेदखली के सात साल बाद भी अपने प्रतिद्वंद्वियों के समक्ष जीत के जीवट का प्रदर्शन नहीं कर पा रही, साम दाम दंड और भेद कुछ भी नहीं बरत पा रही. न वह उनके अंतर्विरोधों का लाभ उठा पाती है, न ही उनकी सरकारों के खिलाफ व्याप्त ऐंटी इनकम्बैंसी का. न वह असम में भाजपा से सत्ता छीन पायी है, न केरल में वामदलों से. उलटे उसे पुद्दुचेरी में हाल तक रही अपनी सत्ता गंवा देनी पड़ी है.

ठीक है कि तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन विजयी हुआ है, लेकिन जूनियर पार्टनर होने के कारण उसका बड़ा श्रेय कांग्रेस के खाते में नहीं आनेवाला. वामदल तो पश्चिम बंगाल में अपनी शिकस्त का गम केरल में अपनी सरकार बचाकर गलत कर सकते हैं, जो नहीं बचती, तो एक तरह से उनका सूर्यास्त ही हो जाता. लेकिन कांग्रेस राहुल गांधी के वहां से सांसद होने का भी कोई लाभ नहीं उठा पायी. इसका एक बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस में हाईकमान का मुंह देखते रहनेवाले नेताओं के प्रभुत्व की परंपरा के चलते उसमें राज्यों में ताकतवर क्षत्रपों के अभ्युदय की गुंजाइश ही नहीं बच पाती. स्वाभाविक ही, उनके अभाव में वह मुकाबलों में जी-जान नहीं लड़ा पाती.

भाजपा के लिए भी संदेश साफ है कि नरेंद्र मोदी या खरीद-फरोख्त अथवा पालाबदल की मार्फत दूसरे दलों से आयातित नेता हमेशा उसके ट्रंप कार्ड नहीं बने रह सकते. पश्चिम बंगाल ने पहली बार कमल खिलने पर सोनार बांगला बनाने के भाजपा के लोक-लुभावन नारे को जिस बेदर्दी से ठुकरा दिया है, यहां तक कि उसे 2019 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने से वंचित कर दिया है, उससे इस तथ्य कोई में संदेह नहीं बचा है कि अगर 2024 में उसका मोदी मैजिक उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में विफल हुआ, जिसके प्रबल आसार दिखते हैं, तो बंगाल जैसे राज्य उसकी भरपाई नहीं करनेवाले.

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