नयी दिल्ली : राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की एक अदालत ने दंगों से जुड़े हत्या के प्रयास मामले में पुलिस की जांच प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए दो आरोपितों को आरोप मुक्त कर दिया. अदालत ने रूसी लेखक फ्योडोर दोस्तोएवस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहा कि ”सौ खरगोशों से आप एक घोड़ा नहीं बना सकते. सौ संदेह एक प्रमाण नहीं बनाते हैं.”
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली हिंसा मामले में हत्या के प्रयास के आरोपित इमरान और बाबू को भारतीय दंड संहिता की धारा-307 और शस्त्र अधिनियम के आरोपों से बरी कर दिया. अदालत ने कहा कि मामले में कहीं नहीं है कि किसने गोली चलायी? किस पर गोली चलायी? कहां चलायी?
अदालत ने कहा कि पुलिस जांच में पीड़ित ही नहीं है. पीड़ित कभी पुलिस के पास ही नहीं आया. पीड़ित ने गोली चलाने या दंगाइयों के बारे में कोई बयान ही दर्ज नहीं कराया. ऐसे में जब पीड़ित ही नहीं है, तो आरोपितों के खिलाफ हत्या के प्रयास का आरोप कैसे लगाया जा सकता है?
मालूम हो कि उत्तर-पूर्व दिल्ली के वेलकम इलाके में राहुल नाम के व्यक्ति पर कथित तौर पर गोली चलाने का मामला दर्ज किया गया था. अदालत ने आरोपित को दोषी ठहराने के लिए सबूत पर जोर देते हुए कहा कि पूर्वाग्रह सबूत का स्थान नहीं ले सकता है.
अदालत ने कहा कि इमरान और बाबू पर अभियोजन पक्ष ने गैरकानूनी सभा में शामिल होने का आरोप लगाना चाहता था, जो हथियारों से लैस होकर 25 फरवरी, 2020 को मौजपुर दंगे में शामिल था. पुलिस की चेतावनी के बावजूद इलाके को छोड़ने से इनकार दिया था, जहां धारा 144 लगायी गयी थी.
हालांकि, अदालत ने दोनों आरोपितों को धारा 143, 143,147 और 148 के तहत गैरकानूनी सभा में हथियारों से लैस होकर शामिल होने का दोषी पाया. अदालत ने कहा कि राहुल को बंदूक से घायल किया गया, लेकिन रिकॉर्ड में बयान नहीं है. इसके बाद अदालत ने राहुल को कथित रूप से भीड़ द्वारा गोली मारने का निष्कर्ष निकाला.
राहुल ने गलत पता और मोबाइल नंबर दिया था. वहीं, जब पुलिस अस्पताल पहुंची तो राहुल गायब हो चुका था. उसका बयान भी पुलिस ने दर्ज नहीं किया था. इसके बाद अदालत ने आरोपितों इमरान और बाबू को मजिस्ट्रेट की अदालत को हस्तांतरित करते हुए कहा कि यह मामला विशेष तौर पर सत्र न्यायालय में सुनने योग्य नहीं है.