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वित्तीय घाटे की गंभीर चुनौती

रिजर्व बैंक को एक ओर सरकार को पूंजी उपलब्धता सुनिश्चित कराना है, तो दूसरी ओर मुद्रा को स्थिर रखते हुए मुद्रास्फीति या ब्याज दरों को भी अनियंत्रित होने से रोकना है.

अजीत रानाडे

अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@thebillionpress.org

चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही (अक्तूबर-दिसंबर) में देश के कुल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के आंकड़े से इंगित होता है कि यह मंदी से बाहर आ गयी. दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) की तुलना में इस तिमाही में उपभोक्ता खर्च में करीब 18 फीसदी की ठोस बढ़त हुई है. यह सकारात्मक उपभोक्ता भावना को प्रदर्शित करता है. जीडीपी में बढ़त भी धनात्मक है और चौथी तिमाही में भी इसके बढ़ते जाने के संकेत हैं.

अगले साल के लिए स्वाभाविक रूप से वी-आकार के सुधार की उम्मीद है तथा वृद्धि दर लगभग 11 फीसदी रह सकती है, लेकिन उच्च वृद्धि दर का अधिकांश इस वजह से हासिल होगा कि अर्थव्यवस्था महामारी के साल में हुए नुकसान को पूरा करेगी. इसके फलस्वरूप दो साल के बाद भारत का आर्थिक आकार 2019 की तुलना में केवल दो या तीन फीसदी अधिक होगा. फरवरी में पेश बजट प्रस्तावों ने उपभोक्ता आशा और कारोबारी भरोसा बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है.

अधिक वृद्धि दर की उम्मीद काफी हद तक मजबूत उपभोक्ता खर्च के साथ औद्योगिक निवेश में निजी क्षेत्र की अगुआई पर निर्भर करती है. आठ फीसदी की सतत आर्थिक वृद्धि के लिए जीडीपी के अनुपात में निवेश की मौजूदा दर 28 फीसदी से बढ़ कर करीब 36 फीसदी होनी चाहिए. सौभाग्य से इस साल कृषि उत्पादन 303 मिलियन टन के रिकॉर्ड स्तर पर है, जो बीते पांच सालों के औसत से लगभग 10 फीसदी अधिक है.

चार महीने से अधिक समय से आंदोलन कर रहे किसानों तथा केंद्र सरकार के बीच कृषि कानूनों को लेकर यदि कुछ समझौता होता है, तो इससे वृद्धि की आशा में उल्लेखनीय मदद मिलेगी. आंदोलन की वजह से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी, विशेषकर पंजाब व आसपास के राज्यों में, की समस्या का समाधान इससे हो सकेगा.

अगले साल बढ़त की उम्मीद का एक मुख्य कारण वित्तीय विस्तार को लेकर वित्तमंत्री द्वारा अपनाया गया रुख है. भले ही बजट में उल्लिखित कुल खर्च में केवल एक फीसदी की बढ़ोतरी होगी, लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर के खर्च में करीब 25 फीसदी तथा टीकाकरण व स्वच्छता समेत स्वास्थ्य के मद के खर्च में लगभग सौ फीसदी की बढ़त होगी.

बजट के दो उल्लेखनीय पहलू हैं-

सभी देनदारियों को पारदर्शिता के साथ जाहिर करना तथा बड़े वित्तीय घाटे को स्वीकार करना. अगले साल के लिए 6.8 फीसदी का बड़ा वित्त घाटा न केवल भारत के अपने वित्तीय उत्तरदायित्व कानून में निर्धारित सीमा से बहुत अधिक है, बल्कि इससे अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों को भी संकेत दिया गया है. रेटिंग घटाने के डर को लेकर इसमें एक बेपरवाही है. आर्थिक सर्वेक्षण के एक अध्याय में केवल यह रेखांकित किया गया है कि कर्ज चुकाने में किसी देरी के न होने के देश के रिकॉर्ड तथा बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार होने के बावजूद भारत के साथ अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का रवैया ठीक नहीं रहा है.

लेकिन यह बेहद जोखिम भरा घाटा भले ही साहसपूर्ण और महत्वाकांक्षी हो, हमें इसके वित्तभरण की चुनौती के प्रति असावधान नहीं होना चाहिए. केंद्र सरकार की केवल सालाना उधार की जरूरत 12 ट्रिलियन रुपये से अधिक है. इसका मासिक औसत हर माह के वस्तु एवं सेवा कर की वसूली के लगभग बराबर है. इस कर्ज को पूरा करने के लिए बैंकिंग तंत्र के समूचे वार्धिक जमा की जरूरत होगी, वह भी तब, जब अगले साल अनुमानित वृद्धि दर आठ फीसदी होगी.

यदि निजी क्षेत्र की क्षमता बढ़ाने और निवेश की जरूरतों के लिए और 12 ट्रिलियन रुपये की दरकार होगी, तब इसका दबाव ब्याज दरों पर होगा, क्योंकि इनको पूरा करने के लिए समुचित धन उपलब्ध नहीं है. असल में, यदि राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कर्ज जरूरतों को जोड़ लें, तो आवश्यक धन की मात्रा 23 ट्रिलियन रुपये से अधिक होगी. इसे केवल देश की पारिवारिक बचत से पूरा नहीं किया जा सकता है.

यहां रिजर्व बैंक की जरूरत होगी, लेकिन यह बस मुद्रा नहीं छाप सकता है, क्योंकि यह उस मुद्रीकरण जैसा होगा, जिस पर 1997 के रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार के बीच हुए समझौते में साफ तौर पर रोक है. ऐसा करने से मुद्रास्फीति भी बढ़ सकती है. रिजर्व बैंक द्वितीयक बाजार से भारत सरकार द्वारा जारी सभी बॉन्ड को खरीद कर परोक्ष रूप से मुद्रीकरण कर सकता है. वास्तव में ऐसा पिछले दो सालों से हो भी रहा है. अपने पैसे से जब भी रिजर्व बैंक बॉन्ड खरीदता है, तो उसके बैलेंस शीट में वृद्धि होती है.

बीते दो सालों में इसमें 50 फीसदी की बढ़त हुई है और आगे भी ऐसा होगा, लेकिन बाजार प्रक्रिया, जैसे- बॉन्ड बिक्री, से इतनी बड़ी रकम जुटाने से ब्याज दरों के बढ़ने का दबाव पड़ेगा और निजी निवेश भी बाहर होगा, जो खुद भी उसी बैंकिंग प्रणाली और पूंजी बाजार से कर्ज लेने की कोशिश में है. इस दबाव को कम करने का एक उपाय यह है कि रिजर्व बैंक सीधे केंद्र से बात कर किसी परिसंपत्ति के एवज में कम ब्याज दर पर पांच साल के लिए कर्ज दे.

यह परिसंपत्ति सार्वजनिक उपक्रमों में भारत सरकार की पूरी हिस्सेदारी के रूप में हो सकती है. तेजी से बढ़ते स्टॉक मार्केट के कारण सरकारी हिस्सेदारी की कुल कीमत आज 20 ट्रिलियन रुपये से अधिक है. ऐसा द्विपक्षीय लेन-देन तकनीकी रूप से मुद्रीकरण नहीं है और न ही इससे ऋण बाजार में उतार-चढ़ाव होगा तथा उम्मीद है कि इससे ब्याज दरों पर दबाव भी हट जायेगा.

सरकार को वित्त मुहैया कराने का एक स्रोत विदेशी कोष भी है. यह अच्छा है कि रुपये के सरकारी कर्ज बाजार में आवक मजबूत बनी हुई है तथा अगले साल भी इसके बहाल रहने की उम्मीद है. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे प्रतिनिधियों के जरिये सरकार अंतरराष्ट्रीय डॉलर बाजार में अर्द्ध-संप्रभु बॉन्ड बेचने पर भी विचार कर सकती है.

इससे एक-दो ट्रिलियन रुपये जुटाये जा सकते हैं. ऐसे समय में, जब अर्थव्यवस्था मंदी से उबर रही है, यह स्वाभाविक है कि कोई भी वित्तीय जरूरत कर बढ़ाने पर निर्भर नहीं हो सकती है. इसलिए, संतुलन के लिहाज से रिजर्व बैंक के लिए अगला साल मुश्किल होगा. इसे एक ओर सरकार को पूंजी उपलब्धता सुनिश्चित कराना है, तो दूसरी ओर मुद्रा को स्थिर रखते हुए मुद्रास्फीति या ब्याज दरों को भी अनियंत्रित होने से रोकना है. यह कोई वांछनीय कार्य तो नहीं है!

Posted By : Sameer Oraon

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