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लोकतांत्रिक पूंजीवाद सुनिश्चित हो

पीएम का मुख्य लक्ष्य विनिवेश के जरिये लोक कल्याण की योजनाओं के लिए धन जुटाना है. उन्होंने कॉर्पोरेशनों पर अधिक कर लगाने से परहेज किया है.

प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

prabhuchawla@newindianexpress.com

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह कहा, जो पहले किसी प्रधानमंत्री ने नहीं कहा था. उन्होंने घोषणा की, ‘कारोबार में रहना सरकार का कारोबार नहीं है.’ उन्होंने साफ कह दिया कि निजी क्षेत्र को भला-बुरा कहना अब स्वीकार्य नहीं है. अपने चिर-परिचित आधुनिक राजनीतिक दर्शन का इस्तेमाल करते हुए मोदी ने शासन के स्थापित मॉडल को हिला दिया है. उनसे आप हमेशा अनपेक्षित कला की अपेक्षा कर सकते हैं. अब मोदीवाद की रूप-रेखा को मोदी अर्थशास्त्र परिभाषित करेगा.

अपने शब्दों और कार्यों से मोदी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एवं लोकतांत्रिक पूंजीवाद को परिभाषित करनेवाली विचारधारा बन चुके हैं. उनका द्विरूपी विश्वास यह है कि मोदी दो हैं- सरकार के प्रमुख और राष्ट्र के प्रमुख. पहले रूप में वे एक पक्के वामपंथी है, जो सीमांत किसानों, महिलाओं, श्रमिकों और बेरोजगार युवाओं को सीधे वित्तीय सहायता व सेवा मुहैया कराने में भरोसा करता है. राष्ट्रीय नेता के तौर पर वे आक्रामक ढंग से निजी उद्यमिता को बढ़ावा देते हैं. मोदी शायद फिर से न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन को चलन में ला रहे हैं.

सिर्फ मोदी ही पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से अलग एक बड़ा वैचारिक बदलाव कर सकते हैं, जो कॉरपोरेट प्रमुखों के हितों को शक्ति के साथ बढ़ावा देना तो दूर, उनके साथ सार्वजनिक रूप से जुड़ने से भी परहेज करते थे. कांग्रेस केंद्र सरकार पर क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देने का आरोप लगा रही है. मोदी के पक्के समर्थक भी उनके नये कारोबार-परस्त रवैये से अचरज में हैं, लेकिन जो मोदी को जानते हैं, उन्हें पता है कि यह उनके लिए मौके का मामला नहीं है.

जब उन्हें लगता है कि उन्होंने जनहित में कदम उठाया है, तो वे शायद ही इसकी चिंता करते हैं कि दूसरे उनके बारे में क्या कहते हैं. वास्तव में, मोदी मार्गरेट थैचर की राह पर हैं, जब वे अस्सी के दशक के शुरुआती सालों में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थीं. वे ऐसे समय में प्रधानमंत्री बनी थीं, जब लेबर पार्टी ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया था. वे निजीकरण की प्रबल पैरोकार थीं. अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि समाजवाद के क्षयकारी और भ्रष्टाचारी प्रभावों का उलट जाना जरूरी है. उनकी आर्थिकी और राजनीति को थैचरवाद के नाम से जाना जाता है.

मोदी मोदीवाद की रचना करने की राह पर हैं, जो पूंजीवादी परकोटे और समाजवादी दिल का अद्भुत सामंजस्य है. बीते छह सालों में उनकी सरकार ने तेजी से चुनिंदा रेल लाइनों, हवाई अड्डों, राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं और विद्युत वितरण के ठेके निजी क्षेत्र को बेचा है. अब इसने सरकार को निजी बैंकों के साथ कारोबार की अनुमति भी दे दी है. इसकी योजना सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या घटाने, जीवन बीमा निगम में हिस्सेदारी कम करने तथा विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की है.

नौकरशाही द्वारा सरकारी उपक्रमों को चलाने को लेकर प्रधानमंत्री उत्साहित नहीं रहे. उनका कहना था कि ‘बाबू हर चीज नहीं कर सकते. एक आइएएस फर्टिलाइजर या केमिकल फैक्ट्री नहीं चला सकता या हवाई जहाज नहीं उड़ा सकता. हम देश को बाबुओं के हाथ देकर क्या हासिल करना चाहते हैं?’ लगभग 250 सरकारी उपक्रमों में अधिकतर घाटे में हैं. कुछ केवल कागज पर हैं.

मोदी ने सरकारी कॉर्पोरेशनों के लिए विशेष कार्ययोजना बनायी है. चूंकि सभी उपक्रमों के पास बहुत जमीन है. उन्होंने संबंधित मंत्रालयों को मुद्रीकरण और आधुनिकीकरण का निर्देश दिया है. प्रधानमंत्री का मुख्य लक्ष्य विनिवेश के जरिये लोक कल्याण की योजनाओं के लिए धन जुटाना है. उन्होंने कॉर्पोरेशनों पर अधिक कर लगाने से परहेज किया है. देश के हालिया इतिहास में अभी कॉरपोरेट टैक्स सबसे कम हैं, जबकि व्यक्तिगत आयकर की दरें बहुत अधिक हैं.

लेकिन निजी उद्यमिता में बहुत अधिक भरोसा दोधारी तलवार है. प्रधानमंत्री को खुद को जरूर आश्वस्त किया होगा कि यदि उनका भरोसा टूटता है, तो इसकी कीमत भारी होगी. नियमन से मुक्त और निर्बाध पूंजीवाद ने पूंजीवादी धनकुबेरों द्वारा निर्मित संपत्ति का कभी भी समान वितरण नहीं हुआ है. भारत में 1991 के बाद धनिकों और गरीबों के बीच खाई गहरी हुई है. लोक सेवा और व्यापार का निजी प्रबंधन आकर्षक है, लेकिन ऐसे देश में जहां एक-तिहाई से कुछ काम आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है, कॉरपोरेट द्वारा सस्ते दर पर जरूरी सेवाओं का मुहैया न कराये जाने से जन असंतोष भड़कने की आशंका रहती है.

नब्बे के दशक के उदारीकरण के बाद से लोक सेवाओं की दरों में खतरनाक बढ़त हुई है. पूंजीवाद पूंजीपतियों के लिए है, क्योंकि वे व्यापार की शर्तें तय करते हैं. वे उत्पादों और सेवाओं के दाम बढ़ा-चढ़ा कर रखते हैं. इसका एक उदाहरण बीमा क्षेत्र हैं, जहां निजी कंपनियों ने मनमानी दरें रखी हैं. स्वास्थ्य बीमा बेहद महंगा है. भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है, जहां 65 साल से अधिक आयु के बुजुर्गों को या तो स्वास्थ्य बीमा नहीं दिया जाता या फिर वे बड़ी कीमत देकर इसे हासिल करते हैं.

दावों की संख्या घटने के बावजूद वाहन बीमा कंपनियां कुछ सालों से प्रीमियम का दाम बढ़ाती जा रही हैं. निजी बैंकों और उड़ान सेवाओं का यही हाल है. निजी क्षेत्र की जो कंपनियां शेयर बाजार में खेल करती हैं, वे छोटे व खुदरा निवेशकों का शोषण करती हैं. बिना प्रभावी अंकुश के निजीकरण लोकतंत्र की राजनीतिक और आर्थिक स्थायित्व के लिए खतरा है.

अफसोस है कि भारत ने स्व-नियमन के पाश्चात्य मॉडल को अपनाया है, जिसमें नियामकों की जवाबदेही नहीं है. पश्चिम में सभी नियामक संसद जैसी निर्वाचित संस्थाओं के प्रति जवाबदेह होते हैं. जनप्रतिनिधि उनके कामकाज की समीक्षा करते हैं. भारत में ऐसा नहीं है. नियामक संस्थाओं से लोगों के हितों की रक्षा की उम्मीद की जाती है, पर वे अंतत: कॉरपोरेट की ही रक्षा करते हैं.

इसके अलावा, यदि सरकार कारोबार से हट रही हैं, तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कारोबार सरकार के कामकाज में दखल न दे. चूंकि निजी क्षेत्र अनुमतियों और छूटों के लिए सरकार पर निर्भर है, तो अपने कुप्रबंधन और अनुशासनहीनता के लिए उसे दोषी भी ठहराया जाना चाहिए. लाभ के निजीकरण तथा घाटे के सार्वजनिक स्वामित्व का सिद्धांत लोकतांत्रिक पूंजीवाद के विचार के ही विरुद्ध है. थैचरिज्म को जन-समर्थन मिलना बंद हो गया था, क्योंकि पूंजीवाद ने उनका भरोसा तोड़ दिया था. सरकार को कभी भी लालची पूंजीवाद की नकेल कसने के अपने अधिकार को नहीं छोड़ना चाहिए.

Posted By : Sameer Oraon

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