आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
कोई भी सरकार जब अपना बजट पेश करती है, तो वह आर्थिक बही-खाते के साथ-साथ एक सियासी संदेश भी देती है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के सोमवार को बजट पेश करने के पहले संसद परिसर में मीडिया से बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि शायद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ कि 2020 में एक नहीं, वित्त मंत्री को अलग-अलग पैकेज के रूप में एक प्रकार से चार-पांच मिनी बजट पेश करने पड़े. वर्ष 2020 में एक प्रकार से मिनी बजट का सिलसिला चलता रहा.
पीएम ने कहा कि मेरा मानना है कि यह बजट भी उन चार बजट की श्रृंखला में देखा जायेगा. दरअसल, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोरोना वायरस संकट और लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को राहत देने के लिए कई चरणों में राहत पैकेज की घोषणा की थी. इस बार का बजट ऐसे समय में तैयार हुआ है, जब जीडीपी ऐतिहासिक संकुचन के दौर में है. Union Budget 2021 LIVE in Hindi से जुड़ी हर अपडेट रहने के लिए बने रहें हमारे साथ.
बजट की पहली कड़ी आर्थिक सर्वेक्षण पेश हो चुका है. इसमें देश के आर्थिक विकास का सालाना लेखा-जोखा होता है. सर्वे यह भी बताता है कि लघु, मध्यम और दीर्घ अवधि में अर्थव्यवस्था में किस तरह की संभावनाएं मौजूद हैं. आर्थिक सर्वे को वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार तैयार करते हैं. एक तरह से यह वित्त मंत्रालय का अहम दस्तावेज होता है. आर्थिक सर्वेक्षण भारतीय अर्थव्यवस्था की समग्र तस्वीर पेश करता है. कोरोना ने अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है.
लोगों की आदमनी में अभूतपूर्व गिरावट हुई है, नौकरियों में छंटनी का दौर चला है. आर्थिक सर्वेक्षण की सबसे अहम बात यह है कि भारत अगले दो वर्षों में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन कर उभर सकता है. सर्वे के मुताबिक 2021-22 में देश की आर्थिक तरक्की की रफ्तार 11 फीसदी रहने की उम्मीद है. आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान लोगों ने खर्च पर नियंत्रण रखा.
इसका असर मांग पर पड़ा है. अनिश्चितता के दौर में आर्थिक गतिविधियों पर अंकुश के साथ भारत ने सिर्फ तत्कालीन आवश्यकताओं पर ध्यान दिया. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सबको खाद्यान्न, गरीबों को खाते में पैसे, सस्ते कर्ज जैसे कदम उठाये गये. अनलॉक के दौरान मांग बढ़ाने के लिए आत्मनिर्भर 2.0 और आत्मनिर्भर 3.0 कार्यक्रमों की घोषणा की गयी. सब्सिडी, प्रोत्साहन स्कीम के साथ मोरेटोरेयिम जैसे कदमों से मदद की. आर्थिक सर्वेक्षण में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च एक फीसदी से बढ़ा कर जीडीपी का 2.5 से 3 फीसदी तक करने का सुझाव दिया गया है.
वर्ष 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी यह लक्ष्य रखा गया था. इसके बावजूद अभी यह एक फीसदी के आसपास ही है. देश को भविष्य में किसी भी महामारी से प्रभावी तरीके से निबटने के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में तेजी लाने की आवश्यकता है. साथ ही दूरदराज के इलाकों में भी स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने के लिए टेली मेडिसिन का पूरा उपयोग किये जाने की जरूरत है. इसके लिए इंटरनेट कनेक्टिविटी में निवेश की जरूरत है.
सर्वे में कहा गया है कि आयुष्मान भारत योजना के साथ ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है. यह हम सब जानते हैं कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र उपलब्ध कराता है. उसे बढ़ावा देने के साथ-साथ उस पर नियंत्रण की भी जरूरत है.
कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था को पहुंची क्षति को फिर से उच्च विकास दर की पटरी पर लाने की चुनौती है. प्रधानमंत्री मोदी हर अवसर का लाभ उठाने में माहिर हैं. लिहाजा इस मौके को भी उन्होंने इसी रूप में लिया है. कुछ समय पहले भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यस्थाओं में शामिल थी, लेकिन पिछले कुछ समय में जीडीपी की रफ्तार में भारी कम आयी है. इस बार का बजट इस दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकता है.
इसमें सबसे अहम इंफ्रास्ट्रक्टर में निवेश है. इस क्षेत्र में निवेश अर्थव्यवस्था को एक बार फिर गति दे सकता है. होता यह है कि घोषणाएं तो हो जाती हैं, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इन योजनाओं को धरातल पर उतारने की होती है. वर्षों से हम देखते आये हैं कि योजनाएं तो बहुत अच्छी बनती हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन या तो होता नहीं अथवा बहुत खराब तरीके से होता है.
देश में अभी मांग का संकट है. करदाता की जेब में पैसे बचेंगे, तो उसका फायदा बाजार और अर्थव्यवस्था को होगा. अगर यह रकम आम आदमी के खर्च के रूप में बाजार में जायेगी, तो निश्चित ही अर्थव्यवस्था को सहारा मिलेगा. मेरा मानना है कि अन्नदाताओं के लिए बजट मददगार साबित होगा. अमेरिका से लेकर यूरोप तक सभी देशों की सरकारें अपने किसानों का ख्याल रखती हैं और सब्सिडी के माध्यम से किसानों की भारी मदद करती हैं, पर यह तथ्य भी है कि आर्थिक सहायता किसानों को तात्कालिक मदद तो प्रदान कर सकती है, लेकिन किसानों की समस्याओं का हल दीर्घकालिक उपाय ही है.
पिछले एक दशक से अपने देश के किसानों की स्थिति बहुत खराब रही है. उन्हें उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. यह हर साल का दृश्य है कि टमाटर और अन्य सब्जियों के दाम इतने कम हो जाते हैं कि किसान उन्हें सड़कों पर फेंक कर चले जाते हैं. हाल में किसानों के आंदोलन विरोध की बड़ी आवाज बने हैं. किसानों की सबसे बड़ी समस्या फसल का उचित मूल्य है. किसान अपनी फसल में जितना लगाता है, उसका आधा भी नहीं निकलता है.
यही वजह है कि आज किसान कर्ज में डूबा हुआ है. किसानों पर बैंक से ज्यादा साहूकारों का कर्ज है. यह सही है कि केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में दो गुना से अधिक की वृद्धि की है, लेकिन मौजूदा समय में खेती में लागत खासी बढ़ गयी है. दूसरी कुछ व्यावहारिक समस्याएं भी हैं, जैसे सरकारें बहुत देर से फसल की खरीद शुरू करती है.
तब तक किसान आढ़तियों को फसल बेच चुके होते हैं. कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर भी विवाद पुराना है. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है, जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती, तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं. यह देश का दुर्भाग्य है कि दशकों से हमारा तंत्र किसानों के प्रति उदासीन रहा है.
अगर आप गौर करें, तो पायेंगे कि विकास की दौड़ में हमारे गांव लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. बिजली-पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों में केंद्रित हो कर रह गयी हैं. आजादी के 70 साल से अधिक हो गये, लेकिन गांवों में बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है. लिहाजा, सरकार की भी कोशिश है कि गांवों का जीवन स्तर सुधरे और विकास की प्राथमिकता के केंद्र में गांव हो.
Posted By : Sameer Oraon