जगदीप छोकर
सेवानिवृत्त प्रोफेसर
आइआइएम अहमदाबाद व संस्थापक सदस्य, एडीआर
वर्ष 2020 हमारे देश के लोकतंत्र के लिए काफी कठिन रहा है़ वर्ष 2021 में क्या होगा, यह कहना मुश्किल है़ लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि इस वर्ष (2021) में क्या होना चाहिए़ वर्ष 2020 में, संसद और विधानसभाओं में जो काम होना चाहिए और जिस तरीके से होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ़ कारण चाहे महामारी रही हो या कुछ और, नतीजा यह रहा कि हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली थोड़ी पीछे रह गयी़. यह सबसे ज्यादा जरूरी है कि इस वर्ष संसद और विधानसभाओं का कामकाज सुचारु रूप से चले़
चुनाव सुधार और लोकतंत्र को मजबूत करने की बात करें, तो इसका बहुत लंबा इतिहास है़ लगभग तीस वर्षों से इस बारे में केवल चर्चा ही हो रही है, गंभीर प्रयास नहीं दिखा है़. छोटे-मोटे सुधार तो हो जाते हैं, लेकिन ठोस सुधारों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखती. जब भी कोई महत्वपूर्ण चुनाव सुधार होने की बात आती है, तब सभी राजनीतिक दल एकजुट हो जाते हैं.
सूचना का अधिकार कानून इसका एक जीवंत उदाहरण है. यह कानून 2005 में लागू हुआ था. इसके बाद जब कुछ राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न की कॉपी मांगी गयी तो वह नहीं मिली. काफी संघर्ष के बाद केंद्रीय सूचना आयोग ने यह कॉपी हमें दी. उससे राजनीतिक दलों के वार्षिक आय के केवल 20 प्रतिशत स्रोत के बारे में ही पता चलता है, 75-80 प्रतिशत आय के स्रोत के बारे में पता ही नहीं चल पाता है.
जब ये राजनीतिक दलों से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि वे सूचना अधिनियम के तहत नहीं आते हैं. जून 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग की एक पूर्ण पीठ ने एकमत से निर्णय दिया कि सभी छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल सूचना अधिनियम के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी हैं. इसके बाद भी सभी छह दलों ने इसका पालन करने से इंकार कर दिया.
राजनीतिक दलों केे इंकार के बाद जब इसके खिलाफ सूचना आयोग में शिकायत की गयी, तो आयोग ने मार्च 2015 में कहा कि हमारा निर्णय एकदम सही है़ लेकिन यदि राजनीतिक दल इसे नहीं मानते हैं, तो इसे लागू करवाने का अधिकार उनके पास नहीं है़ इसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय गया. न्यायालय में भारत सरकार ने शपथ पत्र दिया कि राजनीतिक दल सूचना के अधिनियम के अंतर्गत नहीं होने चाहिए.
इसे विडंबना ही कहेंगे कि सूचना का अधिकार कानून, जो संसद में सर्वसम्मति से पारित हुआ था, वह राजनीतिक दलों को छोड़कर सभी पर लागू होता है़ ऐसे कई मामले हुए हैं, जब राजनीतिक दल खुद को कानून के दायरे से बाहर समझते हैं.
आज देश में एक ऐसा कानून बनने की जरूरत है, जिसमें राजनीतिक दलों के कामकाज के तरीके के बारे में दिशा-निर्देश हो. यदि ऐसा होता है तो बहुत अच्छा होगा़ मेरी अपेक्षा है कि राजनीतिज्ञों के काम करने के तरीके को लेकर जो कानून बने, उसमें तीन मुख्य प्रावधान हो़ं एक, हमारे देश में जो राजनीतिक दल हैं, उनके भीतर का कामकाज लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत चले़ यह कितना विरोधाभासी है कि वे राजनीतिक दल, जो खुद लोकतांत्रिक नहीं हैं, वह देश के लोकतंत्र को चला रहे है़ं
यह सही नहीं है़ इसी के चलते कई वर्ष पहले विधि आयोग ने लिखा था कि यदि कोई संस्था आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक नहीं है, तो वह बाहर के कामकाज में लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है़ दो, राजनीतिक दल खुद कहते हैं कि वह जनता में, जनता के लिए काम करते है़ं ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि वे जनता के लिए काम करते हैं तो उनको जनता से कुछ भी नहीं छुपाना चाहिए़.
राजनीतिक दलों को जो पैसा मिलता है, वह कहां से व कैसे मिलता है और वे उसे कैसे व कहां खर्च करते हैं, इसका हिसाब स्पष्ट व पारदर्शी होना चाहिए़ यानी, कानून के एक प्रावधान में आर्थिक पारदर्शिता की बात भी शामिल होनी चाहिए़ ऐसा होना आवश्यक है, क्योंकि यदि राजनीतिक दलों को मिलने वाले पैसे के स्रोत के बारे में किसी को पता न हो, तो पैसा देने वाले लोग राजनीतिक दलों और सरकार पर दबाव बनाते हैं और अपने मन-मुताबिक काम करवाते हैं, जिससे कई बार जनता का अहित हो जाता है़.
अभी कुछ वर्ष पहले ही सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड योजना लेकर आयी है, जिसने आर्थिक पारदर्शिता को बिल्कुल ही खत्म कर दिया है़ यह मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में है़
तीन, ऐसे लोग जिनके विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, जिसमें उन्हें दो, तीन या पांच वर्ष की कैद हो सकती है और यदि ये मुकदमे चुनाव के छह महीने पहले दर्ज किये गये हों, ऐसे व्यक्ति को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं होनी चाहिए़ यह बहुत चिंताजनक है कि वर्ष 2004 में लोकसभा में 25 प्रतिशत सांसद ऐसे थे, जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज थे.
वर्ष 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत, 2014 में 36 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत हो गयी़ यदि यह संख्या ऐसे ही बढ़ती रही, तो संसद में ऐसे ही लोगों का बहुमत हो जायेगा़ ऐसे सांसदों से देश क्या उम्मीद कर सकता है? राजनीतिक दलों को ऐसे उम्मीदवारों को टिकट नहीं देने के लिए बार-बार कहा जाता है, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इसे मानने को तैयार नहीं है़
ये कुछ ऐसी बाते हैं, जिनका संज्ञान लेना और इनसे जुड़ा कानून बनना चाहिए़ हालांकि ऐसा होना मुश्किल है़ लेकिन नये वर्ष में ऐसा होने की आशा है, साथ ही हमारा संघर्ष भी जारी है़
Posted By : Sameer Oraon