फज्जुर रहमान सिद्दीकी
फेलो, विश्व मामलों की भारतीय परिषद, नयी दिल्ली
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अरब देशों के साथ संबंधों के लिहाज से 2020 इस्राइल के कूटनीतिक इतिहास में एक निर्णायक साल के रूप में याद रखा जायेगा. इस साल संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान और मोरक्को ने इस्राइल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित किया है. वर्ष 1994 में जॉर्डन के साथ संबंध जोड़ने के बाद इस्राइल को नये दोस्त बनाने में 25 साल से अधिक का समय लग गया. यदि अन्य अरब देश भी यही रुख अपनाते हैं, तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए.
इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू लगातार कहते भी रहे हैं कि कई अरब देश इस्राइल से संबंध स्थापित करने की दिशा में अग्रसर हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी संकेत दे चुके हैं कि सऊदी अरब, कतर, मोरक्को, नाइजर और ओमान जल्दी ही इस्राइल के कूटनीतिक कक्ष में प्रवेश कर सकते हैं.
इसकी शुरुआत लगभग चार साल पहले तब हुई थी, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने तीन प्रमुख उद्देश्यों के साथ अपना कार्यकाल शुरू किया था. ये उद्देश्य थे- पहला, ईरान को एक शत्रु देश घोषित करना, दूसरा, इस्राइल और अरब देशों के बीच मेल-जोल बढ़ाना तथा तीसरा, इस्राइल को हरसंभव सहयोग देना. ट्रंप का मुख्य लक्ष्य अमेरिका और इस्राइल की मदद से एक ईरान-विरोधी गठबंधन बनाना था. वे इस्राइल का पुरजोर साथ देने से भी कभी पीछे नहीं हटे.
दिसंबर, 2017 में अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरुसेलम लाना इसका एक उदाहरण है. ट्रंप की पहलों का कुछ अच्छा नतीजा फरवरी, 2019 में वारसा में हुई बैठक में दिखा, जहां यमन के विदेश मंत्री नेतन्याहू के बगल में बैठे दिखे और ओमान के विदेश मंत्री उनसे गले मिलते नजर आये. बाद में इस्राइली प्रधानमंत्री ने कहा कि उस बैठक में अरब के नये नेताओं के साथ खड़ा होना उनके लिए एक ऐतिहासिक मोड़ था.
ईरान के मुकाबले इस्राइल का साथ देने के लिए अरब देशों की लामबंदी के लिए ट्रंप ने पिछले साल जून में बहरीन में एक सम्मेलन बुलाया था, जिसमें ‘सदी के समझौते’ के आर्थिक पहलुओं पर चर्चा हुई. बड़े आर्थिक पैकेज के प्रस्तावों पर मध्य-पूर्व के कई नेताओं ने उत्साह दिखाया, पर फिलीस्तीन के सभी सियासी धड़ों ने इसका बहिष्कार किया था.
पिछले साल दिसंबर में एक्सपो 2020 में शामिल होने के बारे में बातचीत के लिए इस्राइली अधिकारियों के संयुक्त अरब अमीरात दौरे से यह साफ संकेत मिल गया था कि ट्रंप की कोशिशें सही दिशा में बढ़ रही हैं तथा फिर वर्षों के प्रयासों के बाद बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और इस्राइल के बीच संबंध स्थापित होने की औपचारिक घोषणा हो गयी.
इस साल 15 सितंबर को व्हाइट हाउस को ट्रंप, नेतन्याहू और अमीरात व बहरीन के विदेश मंत्रियों की उपस्थिति में ऐतिहासिक अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर हुए. जो मिशन फिलीस्तीन के लिए ‘सदी के समझौते’ के साथ शुरू हुआ था, वह इस्राइल के लिए अब्राहम समझौते के साथ खत्म हुआ. अक्टूबर, 2020 में सूडान द्वारा इस्राइल के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल करने की घोषणा बड़े अचरज की परिघटना रही.
यह बड़ा बदलाव है क्योंकि 1967 में अरब लीग के सम्मेलन की मेजबानी सूडान ने ही की थी, जिसमें तीन प्रकार के प्रस्ताव पारित हुए थे- इस्राइल के साथ शांति नहीं, इस्राइल को मान्यता नहीं तथा इस्राइल के साथ कोई समझौता नहीं.
सूडान को इस नये रिश्ते से बड़ी उम्मीदें हैं. ट्रंप ने सूडान को आतंक को प्रश्रय देनेवाले राज्यों की सूची से हटा दिया है. इसके एवज में उन्होंने सूडान से इस्राइल के साथ संबंध स्थापित करने को कहा. इस समझौते से सूडान को दशकों के आर्थिक संकट और राजनीतिक एकाकीपन से ग्रस्त अपनी विरासत से छुटकारा मिल जायेगा. इस्राइल के साथ जुड़नेवाला एक देश मोरक्को भी है. यह भी अचरज का मामला है, क्योंकि यह राजशाही दशकों से आधिकारिक तौर पर अक्सा मस्जिद की निगरानी के साथ संबद्ध है और इसके राजा का एक पदनाम मोमिनों के अमीर भी है.
सूडान की तरह मोरक्को को भी इस्राइल को मान्यता देने का लाभ मिला है. ट्रंप ने पश्चिमी सहारा पर मोरक्को की संप्रभुता की एकतरफा घोषणा कर दी है और इस क्षेत्र के विकास के लिए आर्थिक सहयोग का वादा किया है. यह इलाका मोरक्को की स्वतंत्रता के समय से ही विवादित है और विद्रोही ताकतें इसकी आजादी के लिए लड़ रही हैं.
सवाल यह है कि तेजी से बदलते इस रणनीतिक परिदृश्य में असली विजेता कौन होगा. नेतन्याहू के इस बयान से इस्राइल में विजय की भावना का अनुमान लगाया जा सकता है कि इस्राइल अब मध्य पूर्व का नक्शा बदल रहा है और अब वह पूरी दुनिया के संपर्क में है. उन्होंने इन समझौतों को इस्राइल के दिल, जेब और सुरक्षा के लिए अच्छा बताया है.
इसमें संदेह नहीं है कि ये समझौते अरबी नेताओं में इस्राइल की बढ़ती आर्थिक, रणनीतिक और सामरिक ताकत का स्वीकार हैं तथा ये अरबों में फिलीस्तीन के मामले से बढ़ते मोहभंग को भी इंगित करते हैं. अपनी आर्थिकी को विस्तार देने के लिए उन्हें इस्राइली सहयोग की दरकार है. ईरान का बढ़ता खतरा भी एक प्रमुख कारक है. इस्राइल के पक्ष में हो रहे अभूतपूर्व कूटनीतिक परिवर्तन को देखते हुए कहा जा सकता है कि कई अरब देश इस्राइल के प्रति नरम रवैया अपनाने को उन्मुख हैं. और, यह सब फिलीस्तीन की कीमत पर होगा, जो शायद बहुत पहले लड़ाई हार चुका है.
Posted By : sameer Oraon