आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक प्रभात खबर
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पिछले दिनों केंद्रीय गृह मंत्रालय ने देश के 2020 के सर्वश्रेष्ठ थानों की सूची जारी की. इस सूची में मणिपुर के थौबाल जिले का नोंगपोक सेकमाई थाना सर्वश्रेष्ठ माना गया. दूसरे स्थान पर तमिलनाडु के सलेम सिटी का सुरामंगलम और तीसरे स्थान पर अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले का खरसांग थाना है. चौथे स्थान पर छत्तीसगढ़ का झिलमिल का भैया थाना, गोवा का सांगुएम पांचवें, अंडमान निकोबार का काली घाट छठे, सिक्किम का पाक्योंग सातवें, मुरादाबाद का कांठ आठवें, दादरा नगर हवेली का खानवेल नौवें और तेलंगाना के करीमनगर का थाना जमीकुंटा दसवें स्थान पर है,
लेकिन इस सूची में बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और देश की राजधानी दिल्ली का कोई थाना स्थान नहीं पा सका है. कोरोना काल के मुश्किल हालात के बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह सर्वेक्षण कराया था. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों के हजारों पुलिस थानों का सर्वे किया गया, जिसके बाद यह सूची तैयार की गयी है.
इससे यह पता चलता है कि साधनों के अभाव में भी प्रतिबद्ध होने पर अच्छा काम किया जा सकता है. इस सर्वे में 10 बेहतरीन पुलिस थानों के चयन में उनके कामकाज, सेवा की गुणवत्ता और पुलिसिंग को बेहतर बनाने के लिए तकनीक के इस्तेमाल जैसी 19 कसौटियों को आधार बनाया गया. अगर आप समीक्षा करेंगे तो पायेंगे कि कोरोना काल में पुलिस कर्मियों का भारी योगदान रहा है.
लॉकडाउन के दौरान झारखंड और देश के अन्य अनेक राज्यों के थानों में रोजाना भोजन की व्यवस्था थी. कोरोना काल में पुलिसकर्मी पूरी शिद्दत से अपनी ड्यूटी में लगे हुए थे. इस दौरान जब लोग परेशानी में फंसे, तब उन्हें पुलिस प्रशासन से ही सहारा मिला था, लेकिन बावजूद इसके आम जन में पुलिस की छवि दोस्ताना न होने और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करनेवाले की है. एक कहावत प्रचलित है कि पुलिसवाले की न दोस्ती भली, न दुश्मनी. इस धारणा की जड़ें गहरी हैं.
इसकी वजह यह है कि अनेक राज्यों से पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किये जाने की खबरें अक्सर सामने आती रहती हैं. आम आदमी के दिमाग में पुलिस की छवि के साथ प्रताड़ना, अमानवीय व्यवहार और उगाही जैसे शब्द जुड़ गये हैं. जिस आम आदमी को पुलिस के सबसे ज्यादा सहारे की जरूरत होती है, वह पुलिस से दूर भागने की हरसंभव कोशिश करता है. हाल में सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में प्रताड़ना से जुड़े एक मामले के निबटारे के दौरान सभी पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया, जिससे मानवाधिकारों के हनन की जांच की जा सके.
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वे सुनिश्चित करें कि हर पुलिस स्टेशन के सभी प्रवेश और निकास बिंदुओं, मुख्य द्वार, लॉकअप, गलियारों पर सीसीटीवी कैमरे लगाये जाएं. देश में समय-समय पर पुलिस सुधारों को लेकर अनेक समितियों और सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिये हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि इन पर कभी पूरी तरह अमल नहीं हो पाया है.
कुछ समय पहले एनजीओ कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने पुलिस सुधारों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट के अनुसार यूपी में केवल 8 फीसदी और पंजाब में सिर्फ 9 फीसदी लोग ही पुलिस के कामकाज से संतुष्ट थे. हालांकि हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के 71 फीसदी लोग पुलिस बल से संतुष्ट पाये गये. देश में 16,587 पुलिस थाने हैं. बड़ी संख्या ऐसे थानों की है, जहां बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं.
ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के आंकड़ों के मुताबिक देश के 85 पुलिस स्टेशनों में वाहन नहीं है. 539 थानों में टेलीफोन जैसी बुनियादी सुविधा नहीं है. इसी तरह वायरलेस और मोबाइल फोन के बिना 400 पुलिस स्टेशन हैं. हालांकि देश में हर एक लाख व्यक्ति पर पुलिस कर्मियों की स्वीकृत मानक संख्या 181 है, लेकिन वास्तविक संख्या इससे कम है.
एक शिक्षक को साल में रविवार, सार्वजनिक और अन्य अवकाश मिला कर तकरीबन 100 छुट्टियां मिलती हैं. पुलिसकर्मियों को साल भर में भले ही कितनी भी छुट्टियां स्वीकृत हों, उन्हें बमुश्किल 10-12 छुट्टियां ही मिल पाती हैं. शिक्षकों की पदोन्नति औसतन 10 साल में हो जाती है, जबकि पुलिसकर्मियों को पदोन्नति पाने में अमूमन 15 साल तक लग जाते हैं. शिक्षकों की ड्यूटी सात घंटे की होती है, लेकिन पुलिसकर्मी की ड्यूटी के घंटे निर्धारित नहीं हैं.
वे औसतन 12 घंटे काम करते हैं. शिक्षक घर के समीप वाले स्कूल में पढ़ाते हैं, जबकि पुलिसकर्मी गृह जनपद में नौकरी नहीं कर सकते हैं. लिहाजा पुलिस की नौकरी का आकर्षण समाप्त होता नजर आ रहा है. यह बात कोई छुपी हुई नहीं है कि भारत में पुलिस बल के कामकाज में भारी राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. जब अपराधी खुद राजनीति में आ जाते हैं, तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं.
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद बाहुबलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर रखने में सफलता हासिल नहीं हुई है. पद्म विभूषण से सम्मानित जूलियो रिबेरो सुपर पुलिस अधिकारी माने जाते हैं. पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में अहम भूमिका निभायी थी. यूपी के चर्चित अपराधी विकास दुबे के संदर्भ में उन्होंने एक लेख लिखा कि उनके दौर में भी अपराधी होते थे, लेकिन पुलिस से डरते थे. पुलिस दल पर हमला करने की उनकी हिम्मत नहीं थी. इसका जवाब ढूंढना कोई मुश्किल नहीं है.
संस्थाओं के राजनीतीकरण और न्यायिक व्यवस्था के क्षरण के कारण यह पहले से ही स्पष्ट नजर आने लगा था. कोई भी नागरिक कानून व्यवस्था के लिए सबसे पहले पुलिस से संपर्क करता है. उसके बाद अभियोजन पक्ष, बचाव पक्ष और जज आते हैं. यदि पहला पड़ाव ही पैसे और राजनीति से प्रभावित हो जाए, तो फरियाद का कोई नतीजा नहीं निकलता है.
posted by : sameer oraon