राजीव कुमार, पटना : बिहार विधानसभा का चुनाव परिणाम आ गया समस्याओं की पहचान भी हुई, किंतु समाधान का रास्ता नहीं मिला. जातीय समीकरण के साथ ही जातीय एवं इमोशनल कार्ड भी खेले गये, किंतु राजनीति की शुचिता पर किसी ने सवाल खड़े नहीं किये.
इसके विपरीत कानून से बचने के तमाम हथकंडे अपनाये गये. राजनीतिक पार्टियों ने वैसे लोगों को अपनी उम्मीदवार बनाया जिसे कानून की नजर में अपराधी माना जाता है. बिहार विधानसभा चुनाव में विश्लेषित किये गये 3722 उम्मीदवारों में से 915 यानी 25 प्रतिशत ने अपने उपर गंभीर धाराओं के मामले घोषित किये,जबकि पिछले चुनाव में यह संख्या 23 प्रतिशत थी.
इस प्रकार यह संख्या निरंतर बढ़ती चली जा रही है. बिहार की राजनीतिक इतिहास में सर्वाधिक 17वीं विधानसभा में 51 प्रतिशत आपराधिक चरित्र के उम्मीदवारों को जनता ने अपना प्रतिनिधि विधायक चुन लिया. यानी 241 में 123 के खिलाफ गंभीर धाराओं के तहत मामले दर्ज हैं.
इसके पूर्व 16वीं विधानसभा में यह 40 प्रतिशत हुआ करता था और इसके पूर्व 15वीं विधानसभा में 35 प्रतिशत था, यानी मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की तरह न्यायालय एवं निर्वाचन आयोग के तमाम सख्ती की बावजूद अपराधीकरण का ग्राफ बेतहाशा बढ़ता चला गया.
यानी कल तक जो कानून के समक्ष चुनौतियां पेश किया करते थे अब वे खुद कानून बनायेंगे. बाहुबली के साथ ही उनके परिजन भी सदन पहुंचने में कामयाब रहे. चुनाव में कई ऐसे उम्मीदवार जीत गये, जिनके उपर हत्या के प्रयास, हत्या, अपहरण का प्रयास, दुष्कर्म और धमकी जैसे मामले हैं.
इनमें 19 ने अपने घोषणा पत्र में हत्या (302) के मामले घोषित किये हैं, वहीं 31 (307)और विजेता उम्मीदवारों (विधायक ) ने अपने नामांकनपत्र में महिलाओं उपर हिंसा से संबंधित मामले दर्ज किये है. पार्टियों द्वारा उम्मीदवारी न्यायालय एवं निर्वाचन आयोग के हिदायत के बाद तय किया गया.
नैतिकता को ताक पर रख कर राजनीतिक दलों ने उम्मीदवारों को अपना उम्मीदवार बनाया. अलबत्ता दलों ने रटे -रटाये बहाने बनाये कि संघर्ष में नेताओं के उपर मामले दर्ज हो जाते हैं, जबकि यहां बात गंभीर धाराओं के तहत मामलों को लेकर है.
प्रदेश के कम सर्कुलेशन वाले अखबारों में विज्ञापन छपवाया गया साथ ही वेबसाइट पर बेसिर पैर के तर्क गढ़े गये.अपुष्ट खबरों के अनुसार टिकटों की बिक्री के जरिये राजनीति को स्तरहीन करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा गया. शराब व पैसे आदि के जरिये बड़े पैमाने पर वोटों के खरीदे जाने से लोकतंत्र का महापर्व महज मजाक बन कर रह गया.
अक्सर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि सार्वजनिक मंचों से राजनीति के अपराधी करण से दूरी बनाने की बात तो करते हैं, किंतु जब टिकट बंटवारे की बात होती है ,तो दागी ही पहली पसंद हो बन जाते हैं. इसके पीछे मात्र एक ही मंशा महज सत्ता में बने रहने की भूख हो सकती है.
चुनाव सुधार के लिए यह आवश्यक हो गया है कि एक मापदंड खुद राजनीतिक दल तय करें.लंबे अर्से से राजनीति में अपराधीकरण को लेकर चिंता प्रकट की जाती रही है, लेकिन इस दिशा में ठोस पहल का अभाव दिख रहा है.
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लेखक एडीआर से जुड़े हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं
Posted by Ashish Jha