राजदेव पांडेय, पटना : प्रदेश विधानसभा चुनाव चरम पर पहुंच चुका है. इस विधानसभा चुनाव में सभी दलों ने 60 से अधिक महिला उम्मीदवार उतारे हैं. इसके बावजूद प्रदेश में महिला लीडरशिप का अभाव दिख रहा है.
दरअसल प्रदेश के किसी भी दल के पास ऐसी महिला लीडरशिप नहीं है,जो आधी आबादी के बीच महिला मतदाताओं को आवाज बुलंद कर सके. यही वजह है कि अपवाद स्वरूप वाम दलों को छोड़ दें तो किसी भी दल में एक भी महिला स्टार प्रचारक नहीं है.
यह परिदृश्य उस प्रदेश में है,जहां तारकेश्वरी सिन्हा, प्रभावती गुप्ता, पद्माशा झा, कृष्णाशाही जैसी प्रखर वक्ता नेता रह चुकी हैं, जिनकी लीडरशिप असंदिग्ग्ध रही. राबड़ी देवी ने भी अपनी प्रभावपूर्ण मौजूदगी दर्ज करा चुकी हैं.
फिलहाल पूरे प्रदेश में माले नेता कविता कृष्णन ही अकेली महिला नेत्री हैं, जो लगातार बिहार में स्टार प्रचारक के तौर पर काम कर रही हैं. महिला मतदाताओं को आकर्षित करने वाली कोई महिला फिलहाल किसी भी दल में नहीं दिख रही.
पूर्व सांसद लवली आनंद खुद ही सहरसा विधानसभा सीट से प्रत्याशी हैं, जबकि पूर्व मंत्री कुमारी मंजू वर्मा भी उम्मीदवार हैं. राजद की नेता पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी बीमार हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री कांति सिंह अपने बेटे के चुनाव में उलझी हैं. सभी दलों की वर्तमान महिला प्रत्याशियों पर नजर डालें, तो उनमें भी अधिकतर पुरुष राजनेताओं की संबंधी हैं.
महिलाओं को पंचायतों और नगरपालिकाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के बावजूद बिहार की राजनीति में उन्हें बराबरी की हिस्सेदारी नहीं मिली है. स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था के तहत 2006 से अब तक करीब एक लाख से अधिक महिलाएं चुनी जा चुकी हैं.
महिला राज्य की करीब स्थानीय निकायों में आज आधे से अधिक का संचालन कर रही हैं. दरअसल पंचायतें महिला सशक्तीकरण का बहुत बड़ा जरिया हैं. हालांकि , इनका मुकम्मल सशक्तीकरण तभी संभव हो सकेगा, जब पंचायतों को कर वसूली और संग्रह का अधिकार दिया जाये. देश के अठारह राज्यों में यह अधिकार है,लेकिन बिहार में नहीं दिया गया. हैरत की बात है किसी भी दल ने महिला सशक्तीकरण के इस मुद्दे की अनदेखी की है.
समाज शास्त्र पटना विवि के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो आर एन शर्मा ने कहा कि बिहार की पॉलिटिक्स में महिलाओं लीडरशिप की परीक्षा हो नहीं पा रही है,क्योंकि पर्दे के पीछे उनके पति या दूसरे परिजन ही रहते हैं.
हालांकि पंचायतों में उन्हें आरक्षण मिलने से कुछ आत्मविश्वास बढ़ा है,लेकिन आर्थिक पर निर्भरता के चलते वह केवल प्रतीकात्मक रूप में राजनीति में देखी जा रही हैं. हालांकि, हमारा इतिहास गवाह है कि हमने काफी समर्थ महिला राजनीतिज्ञ दी हैं.लोगों की पुरुषवादी समाज की मनोदशा में बदलाव अाहिस्ता – आहिस्ता आ रहा है.
Posted by Ashish Jha