दशहरे में पान और जलेबी खाने का विशेष रिवाज होता है. पान को विजय का सूचक माना जाता है. इसे शस्त्र पूजा की भी है विशेष परंपरा होती है. साथ ही साथ अपराजिता फूल का भी इस दौरान विशेष महत्व होता है. आइये जानते हैं इन विशेष तत्वों के बारे में जिसके बिना आपका दशहरा हो सकता है अधूरा…
दशहरे पर कई जगह रावण दहन से पहले हनुमान जी को पान चढ़ाने और फिर उस पान को खाने का विशेष रिवाज है. पान को विजय का सूचक मानते हैं और पान का ‘बीड़ा’ उठाने से तात्पर्य सत्य की राह पर चलने से है. नवरात्रि के दौरान व्रत रखने पर पाचन क्रिया प्रभावित होती है. अत: पान पाचन क्रिया को सामान्य बनाता है. चूंकि ऋतु संधियों में अक्सर रोग-बीमारियां बढ़ती हैं, ऐसे में पान का सेवन रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है. विद्वान पान को मान-सम्मान के प्रतीक के तौर पर भी देखते हैं.
पान के साथ ही दशहरे पर जलेबी खाने की भी परंपरा रही है. यही वजह है कि दशहरे के मेले में जलेबी के बहुत से स्टॉल लगे होते हैं. कहते हैं कि राम को शश्कुली नामक मिठाई बहुत पसंद थी. शश्कुली को ही आज जलेबी के नाम से जाना जाता है. इसलिए विजयादशमी पर्व पर लोग जलेबी खाकर खुशी मनाते हैं.
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विजयादशमी पर शस्त्र पूजा की परंपरा है. कहते हैं भगवान राम ने रावण से युद्ध करने से पूर्व शस्त्र पूजा की थी. नौ दिन शक्ति की उपासना के बाद दशमी के दिन लोग जीवन के हर क्षेत्र में विजय कामना के साथ शस्त्र पूजन करते हैं. शासकीय शस्त्रागारों, भारतीय सेना, पुरानी रियासतों से लेकर आमजन तक धूमधाम से शस्त्र पूजन की परंपरा कायम है. साथ ही देवी व भगवान राम की स्तुति कर सर्वत्र विजय की कामना करते हैं. प्राचीन कथाओं के अनुसार, राजा विक्रमादित्य ने दशहरे के दिन देवी हरसिद्धि की आराधना की थी. छत्रपति शिवाजी ने भी इसी दिन मां दुर्गा को प्रसन्न कर भवानी तलवार प्राप्त की थी. हालांकि पूजा के दौरान बच्चों को शस्त्रों से दूर रहना चाहिए.
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अपराजिता देवी सकल सिद्धियों की प्रदात्री साक्षात माता दुर्गा का ही अवतार हैं. विजयादशमी काे माताओं को विदाई देने से पहले अपराजिता के नीले फूल से पूजा कर अभय दान मांगा जाता है. मान्यता है कि अपराजिता पूजन करने से कभी असफलता का सामना नहीं करना पड़ता है. विजयादशमी के दिन अपराजिता देवी के पूजन का विशेष विधान है.
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, आश्विन शुल्क की दशमी तिथि को शुक्र उदय होने के समय जो मुहुर्त होता है, उसे ‘विजय मुहूर्त’ कहते हैं. देवी अपराजिता को देवताओं द्वारा पूजित, महादेव सहित ब्रह्मा, विष्णु और विभिन्न अवतारों द्वारा नित्य ध्यान में लायी जाने वाली देवी कहा गया है. दशमी के दिन इनके पूजन का विशेष महत्व है.
देवी अपराजिता शक्ति की नौ पीठ शक्तियों में से एक हैं. जया और विजया से संबंधित बहुत-सी कथाएं हमारे धर्म ग्रंथों में प्रचलित हैं, जो देवी पार्वती की बहुत ही अभिन्न सखियों के रूप में जानी जाती हैं. अपराजिता देवी का अर्थ है- जो कभी पराजित नहीं होता. अपराजिता देवी शक्ति की बहुत बड़ी संहारक शक्ति है, यह शक्ति कभी पराजित नहीं हो सकती और न अपने साधकों को कभी पराजय का मुख देखने देती है. अपराजिता देवी को जया, विजया, अजिता, अपराजिता, विलासनी, दोमर्ध्य, अघोरा, मंगला और नित्या के नाम से भी पुकारा जाता है.
देवी अपराजिता के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य भी जानने योग्य हैं, जैसे की उनकी मूल प्रकृति क्या है? देवी अपराजिता की पूजा तब से शुरू हुई, जब देवासुर संग्राम में नवदुर्गाओं ने दानवों के संपूर्ण वंश का नाश कर दिया. तब मां दुर्गा अपनी मूल पीठ शक्तियों में से अपनी आदि शक्ति अपराजिता को पूजने के लिए शमी का घास लेकर हिमालय में अंतर्ध्यान हुईं. क्रमश: बाद में आर्यावर्त के राजाओं ने विजय पर्व के रूप में विजयादशमी की स्थापना की, जो नवरात्र के बाद प्रचलन में आया.
एक अन्य मान्यताओं में, भगवान राम ने माता अपराजिता का पूजन करके ही राक्षस राज रावण से युद्ध करने के लिए विजयादशमी को प्रस्थान किया था. माना जाता है कि यात्रा के ऊपर माता अपराजिता का ही अधिकार होता है. तब से भारत वर्ष में अपराजिता देवी के पूजन का प्रचलन आरंभ हुआ. अपराजिता देवी सकल सिद्धियों की प्रदात्री साक्षात माता दुर्गा का ही रूप हैं.
शारदीय नवरात्र अपराजिता पूजन के बिना संपन्न नहीं होता. विजयादशमी के दिन माताओं को विदाई देने से पहले अपराजिता के नीले फूल से माता की पूजा कर अभय दान मांगा जाता है. मान्यता है कि विजयाकाल में अपराजिता पूजन करने से कभी असफलता का सामना नहीं करना पड़ता है, क्योंकि यह स्वयं सिद्ध मुहूर्त है.
अपराजिता के नीले फूल से देवी अपराजिता पूजन करने से अपराजित रहने का वरदान मिलता है. अपराजिता की लताओं को कलाई में बांधी जाती है. देवी अपराजिता के उपासना के बिना विजयादशमी पूजा एवं पर्व अधूरा माना जाता है.
अपराजिता देवी की साधना और अराधना के संबंध में ‘धर्म सिन्धु’ में बड़ा ही सुंदर वर्णन किया गया है. कहा गया है कि जातक जब भटकाव की स्थिति में हो, मंत्रों के संसार को समझ न पा रहा हो, तो सबसे आसान उपाय कि उस देवता या देवी के लिए गायत्री मंत्र का प्रयोग करे, यथा –
ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे शक्तिः धीमहि अपराजितायै प्रचोदयात।
सामर्थ्य के अनुसार उपरोक्त गायत्री का जप करें. देवी अपराजिता का वरद हस्त प्राप्त करने से जीवन में सदा अजेय और संपन्न होंगे.
Posted by : Sumit Kumar Verma