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देश को नियंत्रित करता वंशवाद

वंशवादी संस्थानों का सार्वजनिक मूल्यांकन नहीं होता. ये ताकत और धन के बल पर अन्य लोगों को प्रतिस्पर्धा और व्यवस्था में प्रवेश करने से रोक देते हैं.

प्रभु चावला, एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla@newindianexpress.com

भारतीय राजनीति में वंश-वृक्ष के सबसे अधिक माली हैं. लोकलुभावनों की पहली पंक्ति वाले ये उत्तराधिकारी ही इसके फलों का आनंद ले रहे हैं. वंश एक विशेष जाति है, जिसकी एक खासियत है- संस्थाओं और संगठनों में ऐसे धनी और शक्तिशाली लोगों की संतानों के लिए सार्वजनिक कार्यालयों में विशेष आरक्षण होता है. वंशवाद के लिए किसी विधायी औचित्य की आवश्यकता नहीं होती है. वंशक्रम पर ही सामंतवाद और राजशाही जीवित रही है.

डीएनए की कभी समाप्ति तारीख नहीं होती, क्योंकि राजनीतिक राजवंशों के पितृपुरुषों और कुलमाताओं द्वारा इसे दीवानी भीड़ के लिए व्यवस्थित कर दिया जाता है. डी-टैग एक प्रीमियम ब्रैंड है, जो सर्वाधिक बिक्री योग्य होता है. वंश प्रमाणपत्र किसी भी क्षेत्र में शक्तिशाली स्थान हासिल करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण योग्यता है. साथ ही, जाति एक अतिरिक्त योग्यता है. शाही राजवंश खत्म हो चुका है. जाति, वर्ग और समुदाय के आधार पर नया राजवंश बन चुका है. शक्ति के केंद्रों तक आसान पहुंच और संस्थानों पर बिना मूल्यांकन विवादमुक्त नियंत्रण के लिए पापा और ममा के नाम पर इठलाना ही पर्याप्त है.

राजनीति से लेकर खेलों तक, मनोरंजन से लेकर कारोबार तक, संस्कृति से लेकर एनजीओ तक और यहां तक कि धर्मस्थलों पर स्वामित्व और नियंत्रण, रक्त संबंधों के आधार पर तय होते हैं, न कि मेरिट के आधार पर. पारिवारिक कब्जे के मामले में राजनीति और खेल आसान लक्ष्य बन चुके हैं. भारत के 70 प्रतिशत से अधिक खेल संस्थान राजनेताओं और कारोबारियों के बेटे-बेटियों द्वारा संचालित किये जा रहे हैं.

वंशवादी संबद्धता का रसायन इतना सुनहरा है कि न्यायिक प्रयोगशालाओं में उच्चतम हस्तक्षेप भी उसकी चमक को कम नहीं कर पाता. जातीय क्षत्रपों या स्थानीय राजाओं के क्षेत्रीय राजनीतिक संगठनों में उनके पुत्र ही एकमात्र प्रबल दावेदार हैं. वंशवादी राजनीति के कभी धुर-विरोधी रहे कई पूर्व समाजवादियों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया है. वे अपने पुत्रों को खुले तौर पर प्रमोट करते हैं. हाल-फिलहाल में कई युवा राजनेता इसी सिद्धांत पर उभरे हैं, जो कि पूरे देश में सर्व स्वीकार्य ट्रेंड बन चुका है. भारत में केवल 30 राजनीतिक परिवार ही देश के 60 प्रतिशत से अधिक निर्वाचित पदों पर नियंत्रण रखते हैं.

इस मामले में राष्ट्रीय पार्टियां अछूती नहीं हैं. एक अध्ययन के अनुसार, उनके 20 प्रतिशत से अधिक पदाधिकारी बेटे, बेटियां, बहनें, पत्नियां, बहुएं और दामाद होते हैं, जो विधायक, सांसद और अन्य निर्वाचित निकायों के प्रमुख बनते हैं. कांग्रेस से लेकर सभी क्षेत्रीय दलों में शीर्ष पद वंशानुगत हैं. गांधियों, करुणानिधियों, पवारों, चौटालों, बादलों, यादवों, अब्दुल्लाओं के जीन में ही राजनीति है.

राजनीति के बाद, यह व्यवसाय है, जो भारतीय समाज में वंशवादी मॉडल के वर्चस्व के लिए टोन सेट करता है. भारतीय व्यापार जगत में परिवार हमेशा से हावी रहे हैं. नब्बे के दशक में जब आर्थिक सुधार आया, तो भारत में उम्मीद थी कि बड़े व्यवसायों के स्वामित्व का दायरा बढ़ेगा, ताकि गैर-पारिवारिक प्रबुद्ध भी उत्कर्ष उद्यमों का हिस्सा बन सकें. उदार आर्थिक नीतियों ने मध्यम वर्ग को उन कंपनियों के शेयरों में निवेश करने में सक्षम बनाया, जो बाजार से पैसा इकट्ठा करने के बाद अपने नियंत्रण को मजबूत करते थे.

यद्यपि, भारत लगभग 2.5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, 80 प्रतिशत से अधिक धन का स्वामित्व पांच प्रतिशत से भी कम व्यवसायी वर्ग के पास है, जिसने अपने सबसे लाभदायक प्रबंधन मॉडल के रूप में वंशवादी उत्तराधिकार को चुना है, जबकि व्यवसायों को सफल बनाने में वास्तविक प्रमोटर कड़ी मेहनत करते हैं. शीर्ष विश्वविद्यालयों से विदेशी डिग्री हासिल करने के बाद युवा पीढ़ी लौटते ही तुरंत काम संभाल लेती है. शेयरधारकों को उत्तराधिकारी के रूप में इन संतानों का ही चुनाव करना होता है. जनता से उम्मीद की जाती है कि वह कई मामलों में उत्तराधिकारियों की अक्षमता से होनेवाले नुकसान को उठाये.

चूंकि, वंशवादी संस्थानों का सार्वजनिक तौर पर मूल्यांकन नहीं होता, ये ताकत और धन के बल पर अन्य लोगों को प्रतिस्पर्धा और व्यवस्था में प्रवेश करने से रोक देते हैं. फिल्म स्टार सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या मामले में बॉलीवुड में वंशवादी शक्ति के बर्बर दुरुपयोग का मामला उठाया गया. ऐसा नहीं कि सभी फिल्म अभिनेता पैतृक या मातृ संरक्षण से सुपर स्टार बन गये हैं. बॉलीवुड में कुछ खानदानों के अत्यधिक दबदबे के कारण वंशवाद की धारणा बनी है.

जो लोग क्रोमोसोम क्लब का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें परिवारों द्वारा नियंत्रित मनोरंजन जगत में जगह बनाने के लिए कुछ अलग और अतिरिक्त मेहनत करनी होती है. ऐसे तमाम क्षेत्र हैं, जहां वंशवाद बहुत हावी है. शीर्ष सिविल सेवाओं में वरिष्ठ अधिकारियों की संतानें आइएएस, आइपीएस आदि के रूप में प्रवेश करने में अपनी पृष्ठभूमि की वजह से अधिक सक्षम हैं. निश्चित ही, उसमें से ज्यादातर मेरिट के आधार पर प्रशासक बनते हैं. हालांकि, पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण चयन प्रक्रिया के बारे में कई सवाल उठाये गये हैं.

पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के पूर्व प्रधान सचिव अमरनाथ वर्मा के बारे में एक चुटकुला है. उनके लगभग 20 अति करीबी, जिसमें उनकी बेटी भी शामिल थी, आइएएस अधिकारी राज्य और केंद्र सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे. ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जहां अधिकारियों के बेटे-बेटियां इन सेवाओं में दाखिल होते हैं. एससी- एसटी अधिकारियों के चयन में एक समान प्रवृत्ति दिखायी देती है. संस्थानों पर नियंत्रण के मामले में मेरिट के बजाय वंश के जरूरी योग्यता बनने के कारण, भारत जल्द ही लगभग सभी क्षेत्रों में राजवंशों के बीच युद्ध का गवाह बन जायेगा.

अतीत की तरह, ताकत और राज्य के समर्थन से वंशवादी उन लोगों को दरकिनार कर देंगे, जिनका कोई गॉडफादर नहीं है. लगता है कि भारत राजवंशों द्वारा शासित लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है. व्यापक तौर पर देखें, तो वंशवाद अब लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ है. वंशवादी पावर प्ले राष्ट्र की नींव को कमजोर करेगा, जिसे 21वें सदी में खानदानी प्रभावमुक्त होकर प्रवेश करना था. इसके बजाय, यह वंशवाद में फंस रहा है, जो राष्ट्र को 11वीं सदी तक पीछे ले जा सकता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Posted by : Pritish Sahay

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