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संयुक्त राष्ट्र में सुधार

सुरक्षा परिषद में प्रतिनिधित्व की विषमता को समाप्त करने के लिए फोरम में स्थायी और अस्थायी श्रेणियों में सदस्यों की संख्या बढ़नी चाहिए.

समूह-चार के देशों- भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान- ने फिर संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में व्यापक सुधारों की मांग की है. इन देशों ने सुधार की प्रक्रिया को टालने के प्रयासों पर क्षोभ भी जताया है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित संयुक्त राष्ट्र ने एक वैश्विक संस्था के रूप में बीते 75 वर्षों में शांति, कल्याण और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. देशों के भीतर और उनके बीच के कई तनावों के समाधान में इसका योगदान उल्लेखनीय है, लेकिन इस सुदीर्घ यात्रा की असफलताओं और समस्याओं की सूची भी लंबी है. स्थापना के समय इसकी संरचना का निर्धारण मुख्य रूप से महायुद्ध के विजयी देशों, विशेषकर अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और ब्रिटेन द्वारा किया गया था.

उस प्रक्रिया में पूर्ववर्ती राष्ट्र संघ के अनुभवों तथा अन्य देशों के सुझावों को भी ध्यान में रखा गया था, किंतु रूप-रेखा में कुछ शक्तिशाली देशों का वर्चस्व स्पष्ट था. विगत दशकों में इसमें परिवर्तन की मांग भी उठती रही है और सुधार के कुछ सराहनीय प्रयास भी हुए हैं. चिंता की बात यह है कि ये सुधार इस मंच पर व्यापक संतुलन बनाने और मूलभूत बदलाव की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं. इस कारण अलग-अलग महादेशों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभरते अनेक अहम देशों को विशेष परिस्थितियों में कुछ कथित महाशक्तियों की ओर देखना पड़ता है.

सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में पांच देश- अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन- अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर निर्णयों को प्रभावित करते हैं. ये देश आपसी तनातनी के अनुसार और वैश्विक भू-राजनीति में अपने हितों को साधने के लिए अन्य देशों के उचित आग्रहों को नकार देते हैं. इसका एक उदाहरण मसूद अजहर का प्रकरण है. उसके सरगना के रूप में भारत के विरुद्ध आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के ठोस प्रमाणों के बावजूद लंबे समय तक सुरक्षा परिषद में उसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी नहीं माना गया, क्योंकि चीन अपने विशेषाधिकार से प्रस्ताव को खारिज कर देता था.

इसी तरह अमेरिका ने युद्ध और प्रतिबंध के अनेक निर्णय बिना सुरक्षा परिषद की मुहर के ही कर लिया और संयुक्त राष्ट्र कुछ नहीं कर सका. बीते दशकों में विश्व की आर्थिकी और राजनीति का स्वरूप बहुत बदल गया है. भारत तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में एक है. ऐसा ही ब्राजील के साथ है. जापान विकसित देश है और जर्मनी यूरोप का सबसे समृद्ध राष्ट्र है. इनमें से कोई भी सुरक्षा परिषद में नहीं है.

इस मंच पर अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका का कोई स्थायी प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि एशिया से केवल चीन ही है. समूह-चार के देशों का मानना है कि इस मंच पर स्थायी और अस्थायी श्रेणियों में सदस्यों की संख्या बढ़नी चाहिए. संस्था के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर समयबद्ध प्रक्रिया के तहत सुधारों की ओर बढ़ने का संकल्प लेना चाहिए, अन्यथा संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व ही निरर्थक हो जायेगा और ऐसा होना विश्व के भविष्य के लिए शुभ नहीं होगा.

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