अरुण कुमार, पूर्णिया : एक अनार, सौ बीमार. पूर्णिया सीट को लेकर सियासी नेताओं पर यह कहावत सटीक बैठती है. दरअसल इस बार के चुनाव में अधिकतर सीटों पर या तो पहले से नो वेकेंसी का बोर्ड लटका हुआ है या फिर टिकट काउंटर खुलते ही हाऊसफुल हो जा रहा है. नतीजा यह है कि कतार में खड़े अधिकतर प्रत्याशियों की भीड़ उस सीट पर बढ़ती जा रही है, जहां टिकट की उम्मीद थोड़ी -बहुत बची हुई है. पूर्णिया की सात सीटों में से पूर्णिया सदर इकलौती सीट है, जिस पर सभी दलों की निगाह है. खास यह है कि सभी दलों में एक दर्जन से अधिक प्रत्याशी न केवल टिकट की कतार में खड़े हैं, बल्कि हर प्रत्याशी अपने-अपने आका के यहां डेरा डाले हुए है.
पूर्णिया की सीट पर भाजपा का लगातार कब्जा बरकरार है. इस सीट को लेकर भाजपा में भी कम हलचल नहीं है. हर सुबह पत्ता कटने और फिर शाम ढलते ही सीट बचने की एक नयी कहानी गढ़ी जाती है. पार्टी के अंदरखाने की मानें , तो पार्टी नेतृत्व सीटिंग सीट पर कोई फेरबदल करने के पक्ष में नजर नहीं आ रहा है, लेकिन पार्टी का एक तबका पार्टी नेतृत्व को समझाने की कोशिश में जुटा है. इधर, राजद और कांग्रेस के बीच भी इस सीट को लेकर जबर्दस्त घमसान मचा हुआ है. 2015 के चुनाव में इस सीट पर एनडीए के खिलाफ महागठबंधन ने कांग्रेस प्रत्याशी को खड़ा किया था. इस बार इस सीट को कांग्रेस से छीन राजद अपनी झोली में डालने के लिए आतुर है.
कांग्रेस इस सीट को किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहती. इसके लिए महागठबंधन के दोनों घटक कांग्रेस और राजद पटना से दिल्ली तक खाक छान रहे हैं. दोनों ही दलों में एक दर्जन से अधिक नेता टिकट की कतार में खड़े हैं. कुल मिलाकर पूर्णिया सीट पर हर किसी की निगाह है. नतीजा यह है कि हर जगह की भीड़ यहीं इकट्ठी हो गयी है. सबसे ज्यादा होर्डिंग इसी विधानसभा में लगे हुए हैं और सबसे ज्यादा प्रेस काॅन्फ्रेंस भी यहीं हो रहा है. हर रोज एक नया प्रत्याशी अवतार ले रहा है. हर के अलग-अलग तर्क हैं तो दावे भी.
पूर्णिया सीट एक जमाने में कांग्रेस का गढ़ माना जाता था. आजादी के बाद हुए पहले चुनाव से लेकर लगातार तीन दशकों तक यहां कांग्रेस का कब्जा रहा. यहां 1952 से लेकर 1972 तक यह सीट कांग्रेस की झोली में रही. इस सीट से कमलदेव नारायण सिन्हा लगातार छह बार चुने गये. इसके बाद 1980 से लेकर 1995 तक सीपीएम के अजीत सरकार का राजनीतिक प्रभाव रहा. जून 1998 को सरकार की पूर्णिया में हत्या हो गयी. उनकी हत्या के बाद हुए उपचुनाव में उनकी पत्नी माधवी सरकार विजयी हुई थीं. 2000 से 2010 तक भाजपा के राज किशोर केसरी यहां से जीतते रहे, लेकिन जनवरी 2011 में उनकी भी हत्या हो गयी. इसके बाद हुए उपचुनाव में उनकी विधवा किरण केसरी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतीं. अभी इस सीट पर भाजपा के विजय खेमका सीटिंग विधायक हैं. महागठबंधन में किस दल को यह सीट जायेगी, इस पर अभी पत्ता खुलना बाकी है. हालांकि, कई नेता टिकट पाने की उम्मीद में चुनावी तैयारी में जुट गये हैं.
1952- कमल देव नारायण सिन्हा- कांग्रेस
1957- कमल देव नारायण सिन्हा- कांग्रेस
1962-कमल देव नारायण सिन्हा- कांग्रेस
1967- केएन सिन्हा-कांग्रेस
1969- कमल देव नारायण सिन्हा- कांग्रेस
1972- कमल देव नारायण सिन्हा- एनसीओ (नेशनल कांग्रेस ऑर्गेनाइजेशन)
1977- देव नाथ राय- जेएनपी
1980- अजीत चंद सरकार-सीपीएम
1985-अजीत चंद सरकार-सीपीएम
1990-अजीत चंद सरकार- सीपीएम
1995-अजीत चंद सरकार- सीपीएम
2000- राज किशोर केशरी- बीजेपी
2005- राज किशोर केशरी- भाजपा
2010 – राज किशोर केशरी- भाजपा
2015- विजय खेमका- भाजपा
posted by ashish jha