बीते दशकों में हमारे देश की स्वास्थ्य सेवा बेहतर हुई है और विकसित पश्चिमी देशों में भी भारत में प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों ने प्रशंसात्मक प्रदर्शन किया है. निजी क्लिनिक और अस्पताल देश की लगभग 70 फीसदी आबादी को अपनी सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं तथा अन्य देशों के आगंतुक मरीजों का भी उपचार कर रहे हैं. लेकिन इतने भर से संतोष करना ठीक नहीं होगा क्योंकि अभी भी भारत की गिनती उन देशों में होती है, जो स्वास्थ्य के मद में अपने कुल घरेलू उत्पादन का बहुत मामूली हिस्सा ही खर्च करते हैं तथा जनसंख्या के हिसाब से स्वास्थ्यकर्मियों एवं सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या अंतरराष्ट्रीय मानकों से काफी कम है. गांवों और दूरदराज के इलाकों में डॉक्टर और दवाई का मिलना आज भी मुहाल है. कोरोना महामारी ने इन कमियों को फिर से उजागर किया है.
जानकारों का कहना है कि बीते कुछ महीनों से जारी संक्रमण के प्रकोप से जूझने में निजी क्षेत्र के अस्पतालों की भूमिका बहुत ही कम रही है. हालांकि आयुष्मान भारत बीमा तथा अन्य योजनाओं से गरीब व वंचित तबके को काफी राहत मिली है तथा सरकार बड़ी संख्या में स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना करने की मुहिम में लगी हुई है, लेकिन इस दिशा में बड़ी पहलकदमी की दरकार है. नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने इस आवश्यकता को रेखांकित करते हुए उचित ही कहा है कि स्वास्थ्य प्रणाली को प्राथमिकता देते हुए इंफ्रास्ट्रक्चर, निवेश और मानव संसाधन बढ़ाया जाना चाहिए. इससे जीवन भी बचाया जा सकेगा और आर्थिक वृद्धि में भी तेजी लायी जा सकेगी.
उल्लेखनीय है कि सस्ती और कारगर चिकित्सा न मिलने के कारण सामान्य रोग भी गंभीर बीमारी में बदल जाते हैं तथा उनके इलाज पर भारी खर्च से हर साल बड़ी संख्या में लोग गरीबी व आर्थिक तंगी की चपेट में आ जाते हैं. इस संबंध में कुछ आंकड़ों से समस्या का अनुमान लगाया जा सकता है. स्वास्थ्य के मद में केंद्र और राज्य सरकारों का खर्च कुल घरेलू उत्पादन का केवल 1.13 फीसदी है, जिसे आगामी कुछ सालों में 2.5 फीसदी करने का लक्ष्य तय किया गया है. अधिक निवेश से प्राथमिक, प्रखंड और जिला स्तर के अस्पतालों की बेहतरी करना सबसे ज्यादा जरूरी है. इससे लोगों को थोड़े खर्च से अच्छा उपचार मिल सकता है.
खर्च का हिसाब देखें, तो परिवारों का अपनी जेब से औसतन खर्च का अनुपात करीब 62 फीसदी है. कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज का खर्च तो अधिकतर परिवारों की सालाना आमदनी से भी अधिक है. शहरों में, विशेषकर निजी अस्पतालों में उपचार बहुत महंगा है. अच्छे अस्पतालों और विशेषज्ञता के अभाव का आलम यह है कि हमारे देश में लगभग 98 फीसदी स्वास्थ्य सेवा ऐसे अस्पतालों या क्लिनिकों से मुहैया करायी जाती है, जहां चिकित्साकर्मियों की संख्या 10 से कम होती है. कर्मियों की संख्या बढ़ाकर तथा रोगों के शुरुआती निदान से सुधारों को तेजी दी जा सकती है.