भागलपुर से दीपक राव : अंग प्रदेश की लोकगाथा पर आधारित बाला-बिहुला-विषहरी पूजा पहले वर्ग विशेष की हुआ करती थी. धीरे-धीरे पारंपरिक तरीके से होनेवाली पूजा और लोकगाथा का महत्व बढ़ने लगा और लोगों की श्रद्धा-भक्ति भी. कुछेक क्षेत्रों में होनेवाली पूजा अब अलग-अलग तरीके से शहर के अधिकतर मोहल्ले में प्रतिमा स्थापित करके पूजा होने लगी. पहले पूजा-अर्चना होती थी, लेकिन अब यह मेला के रूप में विकसित हो चुका है. धीरे-धीरे बिहुला-विषहरी पूजा का महत्व बढ़ता ही जा रहा है. पिछले 10 वर्षों में जिले में 98 स्थानों से बढ़ कर 182 स्थानों पर पूजा होने लगी. खासकर युवाओं के बीच इस पूजा की लोकप्रियता बढ़ी है. इसे लेकर कई बार क्षेत्रीय से लेकर हिंदी फीचर फिल्म भी बन चुकी है.
”होरे घाट पूजे लगली हे, माता मैना विषहरी हे. होरे पहिली घाट पूजे हे, माता पान सुपारी हे. होरे दोसर हो घाट हे, माता तेल जे सिंदूर हे. होरे तीसर हो, घाट हे माता अगर चंदन हे. होरे चौथी धाट हे, माता ओंकारी अच्छत हे. होरे चारो घाट पूजे दे, माता उज्जैनी नगर हे. होरे उज्जैनि नगर हे, हे बसे बासु देव सौदागर हे.” उक्त गीत गाकर श्रद्धालु विषहरी माता का आह्वान करते हैं.
हर साल एक ही तिथि 17 अगस्त को माता विषहरी व सती बिहुला की पूजा होती है. माता विषहरी की पूजा एक माह पहले शुरू हो जाती है. एक माह बाद हरेक साल 17 अगस्त को मुख्य पूजा होती है. 17 अगस्त की मध्य रात्रि में सिंह नक्षत्र का प्रवेश होता है. इससे पहले रात्रि में बरात निकलती है.18 अगस्त को हरेक साल लोग डलिया, दूध व लावा का भोग लगाते हैं. कहीं-कहीं मंजूषा का विसर्जन होता है. भगत की पूजा समाप्त हो जाती है. दोपहर में मनौन-भजन कार्यक्रम होता है और 19 अगस्त को प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है. दो तरह से पूजा होती है. एक सामान्य रूप से प्रतिमा स्थापित करके पूजा की जाती है, तो वही भगत पूजा का कार्यक्रम होता है. इसमें मंजूषा स्थापित की जाती है.
मनसा विषहरी महारानी केंद्रीय पूजा समिति के प्रवक्ता प्रदीप कुमार ने बताया कि 1862 में केंद्रीय पूजा समिति का गठन नित्यानंद भगत ने किया था. कमेटी में तब 10 लोग थे. अब 200 से अधिक लोग शामिल हो चुके हैं. पहले कमेटी के तहत शहरी क्षेत्र का मुख्य स्थान ही था. अब 80 पूजा समिति आ चुकी है. अब नवगछिया, सुल्तानगंज, बांका, अमरपुर आदि क्षेत्र की पूजा समिति को भी मिलाया जा चुका है.
मंजूषा गुरु मनोज पंडित ने मंजूषा गुरु मनोज पंडित ने 17 अगस्त, 2005 में मंजूषा महोत्सव की शुरुआत की थी. इसमें बच्चों व युवाओं को मंजूषा चित्रकला के जरिये लोकगाथा के महत्व को समझने का मौका मिल रहा है. पिछले वर्ष लोकगाथा के महत्व को देखते हुए प्रदेश सरकार के उद्योग विभाग की ओर से मंजूषा महोत्सव बृहद पैमाने पर कराया गया था. इसमें प्रदेशभर के लोक कलाकारों का जुटान हुआ था.
विषहरी पूजा व विसर्जन शोभायात्रा मेला को देखते हुए पांच वर्षों से प्रमंडलीय आयुक्त की ओर से सरकारी छुट्टी दी जा रही है. यह केवल पूरे प्रदेश में भागलपुर शहर के लिए लोकगाथा व स्थानीय लोगों के रुझान के कारण किया गया.
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता देवाशीष बनर्जी ने बताया कि चंपानगर चौक स्थित मंदिर की स्थापना चांदो सौदागर ने की थी और माता विषहरी की पूजा अर्चना शुरू की. यहां पर आज भी स्थायी मंदिर स्थापित है. पहले यहां पर बट्टन झा पुजारी थे और उनका पुत्र संतोष झा सेवारत हैं. पहले छोटा-सा स्थान मिट्टी का स्थान था, जो 20 वर्ष पहले जन सहयोग से भव्य मंदिर बनाया गया.
चंपानगर चौक स्थित ऐतिहासिक मनसा विषहरी मंदिर में प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा पारंपरिक तरीके से होती है. इसके बाद सरकारी पूजा होती है. यहां पर स्थानीय लोगों के साथ दूसरे प्रदेश के लोग भी मंजूषा-डाला व दूध-लावा चढ़ाते हैं. डलिया चढ़ाने के क्रम में मंजूषा लेकर भक्तों की भीड़ उमड़ती है. दिनभर विभिन्न स्थानों के भगत का भी जमावड़ा लग जाता है. यहां पर पाठा की बलि भी चढ़ायी जाती है.
सती बिहुला और मनसा विषहरी लोकगाथा की झांकी है. इसे देखने के लिए लोगों का तांता लगा रहता. रात्रि आठ बजे बाला लखेंद्र की बारात निकाली जाती है. फिर बाला और बिहुला का विवाह कराया जाता है.
बताया जाता है कि चंपानगर स्थित महाशय ड्योढ़ी परिसर में मिट्टी के अंदर लोहा बांस घर है. खुदाई भी की गयी थी. अंदर झांकने पर गुफा व घरनूमा क्षेत्र दिख रहा है. लोग इसे लोहा बांस घर मान रहे हैं. सेवायत विजय प्रसाद झा ने बताया कि बहुत पहले यहां पर पूजा-अर्चना होती थी. फिर से यहां पर पूजा का प्रारंभ मैंने कराया.
Posted By : Kaushal Kishor