आत्मनिर्भरता आत्मनिर्णय के बिना संभव नहीं है. किसी के अधीन रहते हुए कोई आत्मनिर्भर नहीं बन सकता है. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने स्वशासन की बात करते हए अंतिम जन की मुक्ति की बात की. उन्होंने ग्राम पंचायतों को स्वशासन का आधार माना. यह शासन के विकेंद्रीकरण नहीं, बल्कि हर नागरिक को आत्मनिर्णय का अधिकार दिये जाने का विचार था. वर्तमान, आत्मनिर्भरता पर बहस का आधार आर्थिक है. यह सामाजिक और सामूहिक रास्तों से ही मुकम्मल हो सकती है. नब्बे के दशक में विश्व बाजार के लिए दरवाजे खोले गये. इसने विदेशी निवेश को तो बढ़ावा दिया, लेकिन देसी उत्पादकता को नहीं.
वैश्विक एवं वैचारिक संदर्भों में ग्रामसभा की महत्ता बनी हुई है. अनुसूचित एवं गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा की स्थितियां अलग-अलग हैं. गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा सीधे-सीधे पंचायत के ढांचे के अंतर्गत है. यहां संसदीय राजनीति की सारी गड़बड़ियां हैं. लेकिन, संविधान की पांचवीं एवं छठी अनुसूची के क्षेत्रों यानी आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभा का स्वरूप अलग है. एसपीटी, सीएनटी- एक्ट विलकिंसन रूल आदि के होने से इनका स्वभाव अलग है. पीइएसए अधिनियम ने इसे और भी विस्तार दिया है. यहां ग्रामसभा का स्वरूप पारंपरिक है और स्वभाव सामूहिक व स्वायत्त है. अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा को निर्णय लेने की संस्था के रूप में गठित किया गया है, न कि ऊपर से प्रेषित शासकीय आदेश का अनुकरण करने के लिए.
इन क्षेत्रों में ग्रामसभा को स्थानीय स्तर पर जमीन की बंदोबस्ती, हाट की व्यवस्था, छोटे लघु वनोपज एवं खनन संबंधी अधिकार दिये गये हैं. यहां तक कि विकास संबंधी परियोजनाओं के लिए भी ग्रामसभा से अनापत्ति प्रमाणपत्र हासिल करना अनिवार्य है. इन संवैधानिक स्थितियों के आलोक में आदिवासी क्षेत्रों में ग्रामसभा द्वारा स्थानीय उत्पादकता को बढ़ावा दिया जा सकता है. अब तक ग्रामसभा केवल ऊपर से प्रस्तावित योजनाओं का ही अनुमोदन कर रही है. उसकी अपनी उत्पादकता का आकलन नहीं किया गया है. परिणाम यह है कि ग्रामसभाओं का न अपना कोई फंड है और न ही कोई बजट. सब कुछ नौकरशाहों और सरकारों की दया पर आश्रित है. ऐसे में आत्मनिर्भरता कैसे बढ़ेगी?
कोरोना काल में सरकारें मनरेगा आदि योजनाओं से ही ग्रामीण अर्थव्यस्था से जुड़ रही हैं. मनरेगा और दूसरी योजनाएं स्थानीय स्तर पर कोई उत्पादन नहीं कर रही हैं. इन परियोजनाओं में सरकारें फंड तो उपलब्ध करा रही हैं, लेकिन ग्रामसभा अपने लिये कोई फंड सृजित नहीं कर पा रही हैं.
जरूरी है स्थानीय उत्पादों की पहचान करना, उत्पादन के नये तरीके विकसित करना और उन्हें बाजार उपलब्ध कराना. इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वन उपज सहित, खाद्य सामग्री, कला और शिल्प का उत्पादन होता है. साथ ही कच्चा माल निकलता है. उदाहरण के लिए खाद्य एवं खाद्य प्रसंस्करण से जुड़े उद्योगों को ही देखें, तो चॉकलेट उद्योग का जो अंतरराष्ट्रीय बाजार है, उसके लिए कच्चा माल कहां से आता है? निस्संदेह उन्हीं क्षेत्रों से. फिर सवाल खड़ा होता है कि यहां उत्पादित कच्चा माल उन बाजारों तक कैसे पहुंचता है?
स्वाभाविक है कि यह माल बिचौलियों द्वारा ही बाजार तक पहुंचता है. ऐसे ही चॉकलेट और मिठाई से जुड़ा हुआ कच्चा माल चिरौंजी है. स्थानीय बाजार में इसकी कीमत चार सौ रुपये किलोग्राम से ज्यादा नहीं है. उसी तरह महुआ भी स्थानीय बाजार में पचास रुपये प्रति किग्रा से ज्यादा नहीं है. लेकिन, अमेजन पर इन दोनों उत्पादों की कीमत लगभग दो सौ रुपये प्रति सौ ग्राम है, यानी दो हजार रुपये प्रति किग्रा. केवल झारखंड में महुआ का अनुमानित उत्पादन 35 लाख क्विंटल है. यानी स्थानीय बाजार मूल्य के अनुसार पंद्रह अरब रुपये तक का सालाना उत्पादन होता है.
इसी तरह इन क्षेत्रों से जो शिल्प तैयार होते हैं, बाजार में उनकी अच्छी मांग है. वैश्विक दुनिया में ‘ग्लोबल’ और ‘देशज’ दोनों होने की चाह ने इस मांग को पैदा किया है. लेकिन हमारे पास शिल्प मेला को छोड़ कर दूसरा कोई विकल्प नहीं है. ये सामान्य उदाहरण हैं. जब हम रिसर्च के लिए जमीन पर उतरेंगे, तो पायेंगे कि सैकड़ों ऐसे सामूहिक उत्पाद हैं, जो बिचौलियों के लिए छोड़ दिये गये हैं.
आत्मनिर्भरता की राह में दो बड़ी चुनौतियां हैं. पहली श्रेष्ठता बोध की ग्रंथि. दूसरी, बहुराष्ट्रीय पूंजी का दखल. ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी हैं और औपनिवेशिक मानसिकता की सूचक हैं. नीति नियंता इन दोनों से मुक्त नहीं हैं. ब्रांड की चमक और बड़ी पूंजी निवेश के सामने उन्हें जनता की चीजें बहुत मामूली लगती हैं. जबकि, वही आत्मनिर्भरता की बुनियाद हैं. सामाजिक स्वायत्तता के साथ आर्थिक स्वायत्तता हो, तो समाज और मजबूत ही होगा.