यूं तो आज किसी चमत्कार पर यकीन करना मुश्किल है, मगर महान आध्यात्मिक गुरु परमहंस योगानन्द जी ने वर्षों पहले ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ (हिंदी पुस्तक- योगी कथामृत) में इस सच से साक्षात्कार कराया है कि ‘महावतार बाबाजी’ बद्रीनाथ के आसपास हिमालय की पहाड़ियों में सहस्त्राब्दियों से अपने स्थूल शरीर में वास कर रहे हैं. परमहंस जी को बाबाजी ने 25 जुलाई, 1920 में दर्शन दिये थे. इस तिथि को प्रतिवर्ष बाबाजी की स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है. आगे प्रस्तुत है परमहंस जी के शब्दों में महावतार बाबाजी के संस्मरण. बद्रीनाथ के आसपास के उत्तरी हिमालय के पहाड़ आज भी लाहिड़ी महाशय के गुरु बाबाजी की जीवंत उपस्थिति से पावन हो रही है.
ये महापुरुष शताब्दियों से, शायद सहस्त्राब्दियों से अपने स्थूल शरीर में वास कर रहे हैं. मृत्युंजय बाबाजी एक अवतार हैं. हिंदू शास्त्रों में ‘अवतार’ शब्द का प्रयोग ‘ईश्वरत्व का स्थूल शरीर में अवतरण’ के अर्थ में होता है. ‘‘बाबाजी की आध्यात्मिक अवस्था मानवी आकलनशक्ति से परे है,’’ श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक दिन मुझे बताया. ‘‘मनुष्यों की अल्प बुद्धि को उनकी परात्पर अवस्था का ज्ञान कभी नहीं हो सकता. इस अवतार के योगैश्वर्य की केवल कल्पना करने का प्रयास भी व्यर्थ है. वह पूर्णत: कल्पनातीत है.’’ सामान्य दृष्टि को अवतार के शरीर में कोई असाधारण बात नजर नहीं आती, परंतु कभी-कभी प्रसंगानुरूप उस शरीर की न तो छाया पड़ती है, न ही जमीन पर पदचिह्न बनता है. भारत में बाबाजी का कार्य रहा है, जिन विशेष कार्यों के लिए अवतार इस जगत में आते हैं, उन कार्यों की पूर्ति में सहायता करना.
इस प्रकार शास्त्रीय वर्गीकरण के अनुसार, वे एक महावतार हैं. उन्होंने स्वयं बताया है कि संन्यास आश्रम के पुन: संगठक एवं अद्वितीय तत्वज्ञानी जगद्गुरु आदि शंकराचार्य तथा सुप्रसिद्ध मध्ययुगीन संत कबीर को उन्होंने योग दीक्षा दी थी. 19वीं शताब्दी के उनके मुख्य शिष्य लाहिड़ी महाशय थे, जिन्होंने योग विद्या का पुनरुद्धार किया. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इतिहास में बाबाजी का कहीं कोई उल्लेख नहीं है. किसी भी शताब्दी में बाबाजी कभी जनसाधारण के सामने प्रकट नहीं हुए. उनकी युग-युगांतर की योजनानाओं में प्रसिद्धि की चकाचौंध के लिए कोई स्थान नहीं है.
सृष्टि में एकमात्र शक्ति होते हुए भी चुपचाप अपना काम करते रहनेवाले स्त्रष्टा की तरह ही बाबाजी भी विनम्र गुमनामी में अपना कार्य करते रहते हैं. कृष्ण और क्राइस्ट के समान महान अवतार इस धरातल पर किसी विशिष्ट और असाधारण परिणामदर्शी उद्देश्य के लिए अवतरित होते हैं और वह उद्देश्य पूरा होते ही वापस चले जाते हैं. बाबाजी जैसे अन्य अवतार इतिहास की किसी प्रमुख घटना से संबंधित कार्य को नहीं, बल्कि युग-युगों में धीरे-धीरे होनेवाले मानवजाति के क्रमविकास से संबंधित कार्य को अपने हाथ में लेते हैं. ऐसे अवतार सदा ही जनसाधारण की स्थूल दृष्टि से ओझल रहते हैं और वे जब चाहें, अपनी इच्छानुसार अदृश्य होने का सामर्थ्य रखते हैं.
बाबाजी के परिवार या जन्मस्थान के बारे में कभी किसी को कुछ पता नहीं चल पाया. इस मामले में इतिहास लेखकों को निराश ही होना पड़ेगा. साधारणतया वे हिंदी में बोलते हैं, परंतु किसी भी भाषा में बोल लेते हैं. लाहिड़ी महाशय के शिष्यों ने उन्हें श्रद्धा से जो अन्य नाम दिये हैं, वे हैं महामुनि बाबाजी महाराज, महायोगी तथा त्र्यंबक बाबा या शिव बाबा. एक पूर्ण मुक्त सिद्ध पुरुष का कुल-गोत्र क्या कोई महत्व रखता है. लाहिड़ी महाशय कहते थे, जब भी कोई श्रद्धा के साथ बाबाजी का नाम लेता है, उसे तत्क्षण आध्यात्मिक आशीर्वाद प्राप्त होता है.
यह 1920 का दौर था जब रांची में अपने विद्यालय (योगदा आश्रम) के भंडार गृह में ध्यानामग्न परमहंस योगानन्द जी को अनुभूति हुए कि अब उन्हें प्रभु अमेरिका जाने का आदेश दे रहे हैं. अमेरिका में आयोजित धार्मिक उदारतावादियों के अंतराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने का उन्हें निमंत्रण भी मिला. वे कोलकाता रवाना हो गये. मन में तमाम उलझनें लिये वे श्रीरामपुर में श्रीयुक्तेश्वरजी के पास पहुंचे. परमहंस जी के शब्दों में- मैं ईश्वर से आशीर्वाद एवं आश्वासन चाहता था, ताकि मैं पश्चिम के आधुनिक भौतिकवाद और व्यावहारिक उपयोगितावाद के कोहरे में कहीं खो न जाऊं. बार-बार उठनेवाली सिसकियों को दबाकर रखते हुए मैं प्रार्थना करता ही रहा. तीव्रता की वेदना से मेरा सिर चकराने लगा. ठीक उसी क्षण गड़पार रोड स्थित मेरे घर के दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाजा खोला तो देखा कि संन्यासियों की तरह केवल कटिवस्त्र धारण किये एक युवक वहां खड़ा है. मेरे सामने खड़े उस व्यक्ति का चेहरा लाहिड़ी महाशय जैसा ही दिख रहा था.
मेरे मन में उठे उस विचार का उन्होंने उत्तर दिया- ‘‘हां, मैं बाबाजी हूं. हम सबके परमपिता ने तुम्हारी सुन ली है. उन्होंने मुझे तुम्हें यह बताने का आदेश दिया है- अपने गुरु की आज्ञा का पालन करो और अमेरिका चले जाओ. डरो मत, तुम्हारा पूर्ण संरक्षण किया जायेगा. तुम ही वह हो, जिसे मैंने पाश्चात्य जगत में क्रिया योग का प्रसार करने के लिए चुना है. वर्षों पहले मैं तुम्हारे गुरु युक्तेश्वर से एक कुंभ मेले में मिला था और तभी उनसे कह दिया था कि मैं तुम्हें उनके पास शिक्षा ग्रहण करने भेज दूंगा’’. साक्षात् बाबाजी के सामने खड़े होने के कारण भक्ति भाव में विभोर होकर मैं अवाक हो गया. मृत्युंजय परमगुरु के चरणों में मैंने साष्टांग प्रणाम किया.
उन्होंने अत्यंत प्रेम के साथ मुझे उठाया. मुझे कुछ व्यक्तिगत उपदेश दिये और कई गोपनीय भविष्यवाणियां कीं. अपनी अनंत शक्ति से युक्त दृष्टि मुझ पर डाल कर अपने ब्रह्माचैतन्य की एक झांकी मुझे दिखाते हुए परमगुरु ने मुझमें नयी शक्ति का संचार कर दिया.
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन:।।
यदि आकाश में कभी सहस्र सूर्य एक साथ उदित हो सकें, तो उससे उत्पन्न प्रकाश भी इस महान विश्वरूप के प्रकाश के सदृश कदाचित ही हो. (परमहंस योगानन्द जी की ऑटोबायोग्राफी- ‘योगी कथामृत’ से उदृत अंश)
परमहंस योगानन्द जी ने बाबाजी से जुड़ीं कई घटनाओं का जिक्र अपनी किताब में किया है. इसके मुताबिक, बाबाजी एक बार रात उनके शिष्य वैदिक होम के लिए जल रही अग्नि ज्वालाओं को घेरे बैठे थे. अचानक महागुरु ने एक जलती हुई लकड़ी को उठा कर एक शिष्य के नंगे कंधे पर हल्का-सा प्रहार कर दिया. वहां उपस्थित लाहिड़ी महाशय ने विरोध किया. तब बाबा ने बताया कि ऐसा करके मैंने आज तुम्हें पीड़ादायक मृत्यु के हाथों से मुक्त कर दिया.
दूसरी घटना का जिक्र करते हुए योगानन्द जी लिखते हैं- एक बार बाबाजी के पास एक व्यक्ति आया और वह बाबाजी से दीक्षा लेने की जिद करने लगा. जब महागुरु ने ध्यान नहीं दिया, तो उसने कहा- ‘‘आप यदि मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, तो मैं इस पर्वत से कूद पड़ूंगा’’. तब बाबाजी ने कहा- ‘तो कूद पड़ो’. उसने तुरंत अपने आपको नीचे झोंक दिया. स्तब्ध हुए शिष्यों को बाबाजी ने उसके क्षत-विक्षत शव का उठा लाने का आदेश दिया. तब बाबाजी ने उस पर अपना हाथ रखा. परम आश्चर्य! उस आदमी ने आंखें खोलीं और सर्वशक्तिमान गुरु के चरणों में साष्टांग लोट गया. ‘‘अब तुम शिष्य बनने के अधिकारी हो गये हो’’, बाबाजी ने कहा. इस तरह बाबाजी ने शिष्य की कठिन परीक्षा ली. आधुनिककाल में सबसे पहले लाहिड़ी महाशय ने महावतार बाबा से मुलाकात की, फिर उनके शिष्य युत्तेश्वर गिरि ने 1894 में इलाहाबाद के कुंभ मेले में उनसे मुलाकात की थी.
News Posted by: Radheshyam kushwaha