शायरी की तारीख़ में सारा की नज़्में एक कुंवारी मां की हैरतें हैं.” अमृता प्रीतम ने सारा शगुफ़्ता की शायरी पर टिप्पणी करते हुये कहा था. सारा शगुफ़्ता उर्दू शायरी की वह आवाज़ है जो पितृसत्तात्मक ढांचे को पलट कर रख देने पर आमादा हैं. उनकी शायरी में वह रचनात्मकता है जो दिक एवं काल की ज़ंजीरों को तोड़ने का जतन करती है. फूको ज्ञान और ताक़त के बीच संबंध की पड़ताल करते हुए कहते हैं – ज्ञान का इस्तेमाल या तो ताक़त को स्वीकारने के लिए है या उसे समाज के लिए अनुकूलित करने में. ज़ाहिर है कि एक मर्दवादी समाज में ज्ञान पर पुरुषों की इज़ारेदारी होती है. जब कोई महिला अपने दम-ख़म पर ‘ज्ञान’ के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करायेगी तो पुरुष समाज पहली फ़ुर्सत में उसे ख़ारिज करने की कोशिश करेगा. यही मर्दवादी समाज जब सारा के बाग़ी तेवर, तर्क, विचार और चिंतन के आगे बौना साबित हुआ तो उसने उनको पाग़ल और बेराह क़रार दिया. सारा ने तो दुनिया को समझ लिया था किन्तु दुनिया उनको समझने में नाकाम रह गयी.
सारा की समकालीनों में परवीन शाकिर, अज़रा अब्बास, किश्वर नाहीद, फ़हमीदा रियाज़ और सरवत हुसैन जैसी उर्दू की नारीवादी कवयित्रियां हैं. किंतु सारा की आवाज़ सबसे अलग, सबसे जुदा और ताक़तवर है. परवीन शाकिर की शायरी में रूमानी लहजा ग़ालिब रहता है. वहीं सारा की शायरी ज़िन्दगी के अधूरेपन का बयानिया और अनकही संवेदनाओं की मुकम्मल अभिव्यक्ति है. जिसमें अनछुए मसले हैं और चुभते हुए सवाल भी, सिसकती हुआ आत्मा है और मचलता हुआ दिल भी. मतलब यह कि उनकी शायरी में अपने ज़ात की आवाज़ है; और प्रतिवाद और प्रतिरोध की अनुगूंज है. परवीन शाकिर ने उनको श्रद्धाजंलि देते हुए कविता ‘टोमैटो केचप’ लिखी. इसकी चंद पंक्तियां हैं- एक न एक दिन तो/ उसे भेड़ियों के चंगुल से/ निकलना ही था./ सारा ने जंगल ही छोड़ दिया.
सारा की तुलना अमेरिकी कवयित्री सिल्विया प्लाथ से की जाती है. इन दोनों कवियत्रियों के दिलों एक जैसा दर्द है और अभिव्यक्ति भी एक जैसी. बस भाषा और स्थान का फ़र्क़ है. दोनों की कविताओं में दर्द, संवेदना, अवसाद और स्त्री मन बहुत ही शिद्दत से अभिव्यक्त हुआ है. सिल्विया की मशहूर कविता ‘एज’ (कगार) की इन पंक्तियों को देखिए – “चांद के पास दुख मनाने जैसा कुछ नहीं/ वह ताकता है अपने हड्डियों के नक़ाब से/ उसे आदत है ऐसी चीजों की/ उसका अंधकार चीख़ता है/ खींचता है.” अब सारा की कविता ‘चांद का क़र्ज़’ की ये पंक्तियां – “मैं मौत के हाथ में एक चराग़ हूं/ जनम के पहिए पर मौत की रथ देख रही हूं/ ज़मीनों में मेरा इंसान दफ़्न हैं.” दोनो कवियत्रियां लगभग एक जैसे इश्तआरे और बिम्ब इस्तेमाल करती हैं. सरल से दिखने वाले ये