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सफल कौन है ?

पिछले लगभग तीन महीने में कोरोना संक्रमण के बाद इंसान के जीवन में रहन- सहन और सोचने के नजरिये में काफी बदलाव आया है. आज ये साबित हो रहा है कि किसी भी इंसान के लिए मूलभूत जरूरत पूरा करने की कीमत काफी कम है.

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केस स्टडी 1- एक व्यक्ति भारत सरकार के मातहत एक विभाग से बड़े पद से रिटायर करता है और आगे का जीवन बहुत ही आराम से गुजरे, इसके लिए पैसा और संसाधन की कोई कमी नहीं है. बेटा और उसका पूरा परिवार उसके साथ रहता है, लेकिन आज हालत ये है कि उस व्यक्ति को दो वक्त का भोजन भी समय पर मयस्सर नहीं है.

केस स्टडी 2- एक बहुत ही नामचीन बिजनेसमैन है. अपने जीवन में बहुत धनोपार्जन करता है. उम्र बढ़ने के बाद उसने अपना पूरा बिजनेस अपने बेटों को सौंप दिया. बीमार पड़ता है, तो उसे आज देखने वाला कोई नहीं है.

केस स्टडी 3- एक रिटायर्ड प्रोफेसर हैं. बेटा और बहू दोनों इंग्लैंड में नौकरी कर रहे हैं. हर महीने बेटा अपने पिताजी के एकाउंट में पैसा डाल देता है, लेकिन पिछले 5 वर्षों में एक बार ही उसकी मुलाकात अपने माता-पिता से हुई. जब उसकी पत्नी गर्भवती थी, तो उसकी देखभाल के लिए वो अपनी माता को इंग्लैंड लेकर जाता है.

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ये तीनों केस स्टडी का कमोबेश निचोड़ एक ही है. तीनों में व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा रही है और आर्थिक रूप से भी संपन्न है, लेकिन रिटायर करने के बाद वो अपनी भावी पीढ़ी से उपेक्षित है.

पिछले लगभग तीन महीने में कोरोना संक्रमण के बाद इंसान के जीवन में रहन- सहन और सोचने के नजरिये में काफी बदलाव आया है. आज ये साबित हो रहा है कि किसी भी इंसान के लिए मूलभूत जरूरत पूरा करने की कीमत काफी कम है. कीमत विलास की होती है, लेकिन हम अगर अपने या ज्यादातर इंसान के पूरे जीवन चक्र को देखें, तो साफ नजर आता है कि हम सभी पैसे या पद की चाह में आंख- कान बंद कर रेस में लगे हुए हैं, ताकि हमारी पहचान एक सफल व्यक्ति के रूप में हो.

सवाल ये है कि सफल कौन है? कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्होंने अपने प्रोफेशनल जीवन में खूब नाम, यश या पैसा नहीं कमाया, लेकिन उनका पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन बढ़िया है. दूसरी तरफ वैसे लोग हैं जिन्होंने अपने प्रोफेशनल जीवन में बहुत यश और पैसा कमाया, लेकिन उनका पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पटरी से उतरा हुआ है.

कम उम्र में जब हम अपने जीवन की दौड़ शुरू करते हैं, तो अपने प्रोफेशनल जीवन में अपने को पूरी तरह से झोंक देते हैं और ये सब कुछ हम करते हैं अपने पारिवारिक और सामाजिक जीवन की कीमत पर.

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जीवन के इस रेस में हम इतने व्यस्त होते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता है कि हम रोज क्या खो रहे हैं? एक तरफ हमारे बड़े (माता -पिता) होते हैं जिनके लिए हमारे पास वक्त नहीं होता है या हमारा व्यवहार उनके साथ अच्छा नहीं होता है. हम शायद ये भूल जाते हैं कि हमारा जो व्यवहार हमारे बड़ों के साथ है, उसे हमारी संतान भी रोज देख रही है, सीख रही है. इसी तरह से पद और पैसे की चाहत में अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देते हैं. ना हमारे पास अपने पैरेंट्स के लिए वक्त होता है, ना अपने बच्चों के लिए और ना समाज के लिए. मोरल टीचिंग जैसी चीजों के लिए हमारे पास कोई वक्त नहीं होता है.

ये सारी चीजें हमारी संतान रोज देखती और सीखती है और एक वक्त के बाद वो इसे आचार व्यवहार और संस्कार में उतार लेती है और उसे लगता है जीवन जीने का तरीका यही है.

एक पहलू ये भी है कि एक पीढ़ी अपने बच्चों के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ना चाहती है या उनके विचारों को सुनना नहीं चाहती है. उन्हें ये लगता है कि मैंने अपने जीवन में जो सीखा है या अर्जित किया है वो करने में हमारे बच्चों को वक्त लगेगा. शायद यही वजह है कि दो पीढ़ियों की सोच में अंतर आ जाता है.

मेरे कहने का आशय ये नहीं है कि हम अपने प्रोफेशन और बेहतर जीने के लिए सही तरीके से पैसे कमाने का प्रयास नहीं करें. ये आज की जरूरत है और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है. हमें प्रोफेशनल, पर्सनल और सामाजिक जीवन में बैलेंस करने की जरूरत है और जो जितना इसे बैलेंस कर पायेगा, मेरी नजर में वो उतना ही सफल है.

मेरा मानना है सफल वो नहीं है जिसने किसी एक विधा में काफी मान, सम्मान और पैसा अर्जित किया है, बल्कि सफल वो है जो अपने जीवन से संतुष्ट है.

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