‘हम यहां फंस गये हैं काम बंद हो गया है. खाना खाने के लिए घर से पैसे मंगाना पड़ रहा है. संस्था वाले मदद कर रहे इसलिए खाना मिल जा रहा है. पति भी घर जाकर लॉकडाउन के कारण फंस गये हैं. मैं गर्भवती हूं, पति साथ में नहीं रहने के कारण बहुत परेशानी हो रही है’. इतना बताते हुए दीपिका लोहराइन भावुक हो जाती है. अपने घर से लगभग 1200 किलोमीटर दूर अलवर के चोपांकी में काम करने गयी यह दीपिका की कहानी है. जो झारखंड के गुमला जिले की रहने वाली है. दीपिका भी कोरोना वायरस को लेकर लागू किये गये लॉकडाउन के कारण राजस्थान के अलवर में फंसी हुई है. दसवीं पास दीपिका अलवर में मोल्डिंग मशीन चलाने का काम करती है. पर दीपिका एक अकेली प्रवासी मजदूर नहीं है. देश में दीपिका जैसी कई कहानियां और होंगी जो सड़कों पर चली. अब भी देश में कोरोना वायरस के मामले कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं. अंदाजा यह लगाया जा रहा है कि क्या फिर से तीसरी बार कोरोना मामलों ने पूरी दुनिया में तेजी पकड़ ली है. पढ़िये पवन कुमार की रिपोर्ट
घर पहुंचने में खर्च कर दी पूरी कमाई
मांडर प्रखंड के करंजटोली निवासी जलेश्वर लोहरा भी कुछ दिन पहले तेलंगाना के सिंकदराबाद से घर लौटा है. जलेश्वर लोहरा ने बताया कि पहले वो तेलंगाना से नागपुर तक पैदल आया. उसके साथ 20 लोग थे. इसके बाद नागपुर से एक लॉरी में बैठ कर रायपुर पहुंचे. तेलंगाना से नागपुर तक 250 किलोमीटर की दूरी उसने पांच दिन में पूरी की. फिर रायपुर से बस में बैठकर रांची आया. इस पांच दिनों की यात्रा के बारे में बताते हुए जलेश्वर कहता है कि उन पांच दिनों में ऐसा लगा कि मैं अपने ही देश में बेगाना हूं. जिस आबादी वाली जगह से गुजरता था वहां पर संदिग्ध भरी नजरों से हमें देखा जाता था. सिर्फ बिस्किट और पानी पीकर पांच दिन रहे. इसके बाद रायपुर पहुंचने पर बस में सत्तू प्याज और नमक के साथ एक केला मिला. जलेश्वर ने कहा कि लॉरी में उन 15 लोगों ने मिलकर 22000 रुपया भाड़ा दिया था. जलेश्वर ने बताया कि तेलंगाना में कुली का काम करते थे. मेस में खाना मिलता था. पर काम बंद हो गया और इसलिए घर आना चाहते थे. अब घर तो पहुंच गये हैं लेकिन सब जमापूंजी खत्म हो गयी है. यहां सिर्फ घर है. अभी काम भी नहीं मिल रहा है. रोजी रोटी की चिंता सता रही है.
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विशाखापतनम से पैदल चलकर आ रहे राम सोरेन की कहानी भी ऐसी ही है. साहेबगंज के बड़हरवा प्रखंड के रहने वाले राम सोरेन जब ओडिसा बंगाल बार्डर पर पहुंचे तो उनके पास सिर्फ 150 रुपये बचे हुए थे. छह साथियों के साथ वो विशाखापत्नम से पैदल आ रहा था. रास्ते में लोगो ने जो खाना दिया उसे खा लिया. पर खड़गपुर में बस के लिए इंतजार करना पड़ा. राम सोरेन के पास बीस बीघा जमीन है लेकिन सिंचाई की सुविधा नहीं होने कारण वो खेती नहीं कर पाते हैं और मजदूरी करने के लिए दूसरे राज्य में जाते हैं. बालासोर से गोड्डा लौट रहे जगदीश ने बताया कि झारखंड द्वारा प्रवासी मजदूरों की सहायता के लिए दिये गये लिंक में उनलोगों ने रजिस्टर कराया था. पर सिर्फ एक मजदूर का रजिस्ट्रेशन हो पाया बाकी किसी का नहीं हुआ. इसके बाद सभी लोग पैदल ही निकल गये.
20 मजदूरों के साथ फंसे थे हेमलाल एस नायक
गिरिडीह बगोदर के हेमलाल नायक भी गुजरात के आनंद में फंसे हुए थे. एक कंपनी में सुपरवाइजर का काम करते हैं. आनंद ने बताया कि वो 20 मजदूरों के साथ गुजरात में फंसे हुए थे. घर आने के लिए सवा लाख में बस बुक कर लिया है लेकिन यात्रा पास नहीं मिल पा रहा है. सरकार द्वारा चलायी जा रही ट्रेन के टिकट मिल पाना मुश्किल है. इसके बाद जिस दिन वहां से मजदूरों को लेकर ट्रेन निकली उसी दिन वो भी बस बुक करके गिरिडीह के लिए निकल गये.19 मजदूूरों को लेकर एक लाख बीस हजार रुपया में बस बुक करके हेमलाल अपने घर पहुंचे.
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मिशन बदलाव के सदस्य भूषण भगत बताते है कि जिस तरह से वर्तमान में मजदूर सड़क पर आ गये. इसने एक सवाल जरूर खड़ा कर दिया कि क्या वाकई सरकार ऐसी किसी परिस्थिति के लिए तैयार नहीं थी. लाखों की संख्या में मजदूर अपने घर के लिए पैदल निकल पड़े. इस दौरान सड़क हादसों में कितने मजदूरों की मौत हो गयी. जबकि सरकारें चाहती तो अपने स्तर से भी मजदूरों के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर सकती थी. अपने सिस्टम का इस्तेमाल इनके लिए कर सकती थी. लेकिन कई ऐसे उदाहरण सामने आये जब आलाधिकारी तक असंवेदनशील दिखे. कम से कम राज्य सरकार या केंद्र सरकार सामाजिक संगठनों से वोलेंटियरी सहयोग ले सकते थे. पर इनके मुद्दे में कुछ भी कोई भी संवेदनशील नहीं दिखा. साफ शब्दों में कहूं तो इससे एक ही बात समझ में आती है, मजदूर वोट बैंक नहीं है इसलिए रोड पर छोड़ दिया गया. जब राजनीति शुरू हुई तब अब सभी आगे आ रहे हैं. उन्होंने बताया कि मिशन बदलाव की पहल पर तमिलनाडु में फंसे झारखंड के गुमला जिले की 130 बच्चियों को वापस लाया गया है.
मजदूर संगठनों ने नहीं निभायी जिम्मेदारी
बगोदर से माले विधायक विनोद सिंह ने मजदूरों को घर पहुंचाने की उचित व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण सरकार को जिम्मेदार ठहराया. साथ ही जो बड़े मजदूर संगठन हैं उनके ऊपर सभी सवाल खड़ा किया कि, आखिर जब इतने सारे मजदूर सड़क पर पैदल चल रहे हैं या देश के अलग-अलग हिस्सों में फंसे हुए हैं तब मजदूर संगठन खामोश क्यों हैं. क्या उनके लिए सरकार मुफ्त में ट्रेन की व्यवस्था नहीं कर सकती थी. कई मजदूर ऐसे हैं जिन्होंने अपनी पूरी कमाई घर पहुंचने में ही खर्च कर दी. ट्रेन से आये मगर भाड़ा देकर आये थे. जबकि मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए सरकार श्रमिक स्पेशल ट्रेन चला रही है.
अभी मात्र 46 फीसदी मजदूर घर पहुंचे हैं
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि श्रमिक स्पेशल ट्रेन के लिए मजदूरों का 85 फीसदी भाड़ा केंद्र सरकार दे रही है. बाकी 15 फीसदी राज्य सरकारों को देना था. इसके बावजूद लाखों लाख की संख्या में मजदूर पैदल ही घर चलने के लिए मजबूर हुए. 30 मई को एक निजी चैनल में साक्षात्कार के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 4,000 श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं, जिनसे यात्रा कर 50 लाख से अधिक लोग अपने-अपने घरों तक पहुंच चुके हैं. इसके अलावा करीब 40 लाख लोगों ने अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए बसों का उपयोग किया. वहीं भारत के चीफ लेबर कमिश्नर द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 33 दिनों में 4155 श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलायी गयी जिसके जरिये 57 लाख लोग अपने घर पहुंचे हैं. आंकड़े यह भी कहते हैं कि कुल प्रवासी मजदूरों में से महज 46 फीसदी मजदूर ही अपने घर वापस लौट पाये हैं. खाद्य आपूर्ति द्वारा जारी किये गये आंकड़ों के मुताबिक झारखंड के लगभग 27 लाख प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों में काम करते हैं.
गांव में आधारभूत संरचना के विकास की जरूरत
देश भर के प्रवासी मजदूरों की संख्या लगभग आठ करोड़ है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशने के मुताबिक पूरे विश्व में 40 करोड़ मजदूर है. झारंखड में काम करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि भारत में वर्ष 1990 के बाद भारत में प्रवासी मजदूरों की संख्या में बहुत बढ़ोतरी हुई. क्योंकि उससे पहले देश में वस्तु विनिमय प्रणाली थी. पर आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में यह प्रणाली बदल गयी और मुद्रा विनिमय प्रणाली की शुरूआत हुई. इसके लिए नकदी की आवश्यकता बढ़ी. इसके कारण कृषि उत्पाद में कमी आयी. कृषि की लागत बढ़ गयी. विदेशी कंपनिया भारत में आयी और लोगों की जरूरतें बढ़ीं. इसके बाद पलायन शुरू हुआ. अगर आज भी कृषि प्रणाली में सुधार किया जाये, सिंचाई की उचित व्यवस्था हो तो मजदूर रोगजार की तलाश में पलायन नहीं करेंगे.
Posted By: Pawan Singh