अजीत रानाडे, सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन
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पांच हफ्ते के लॉकडाउन से साफ हो चुका है कि गर्मी के महीने कठिन होंगे. जब तक एक जरूरी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता, अर्थव्यवस्था की कठिनाइयां बढ़ती ही जायेंगी. महामारी ने तीन स्तरों पर- आपूर्ति, मांग और वित्तीय सदमे के रूप में समस्या पैदा की है. सख्त लॉकडाउन अर्थव्यवस्था के तीन चौथाई पर घोर तालाबंदी की तरह है. इसने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह से प्रभावित किया है, जहां नौकरियां गयीं, आमदनी बंद हो रही है और प्रवासी मजदूरों के सामने तो खाने-पीने का भी संकट आ गया है. मांग के स्तर पर लगे झटके की मुख्य वजह उड्डयन, पर्यटन और आतिथ्य सेवा के क्षेत्र में आयी बड़ी गिरावट है. लेकिन, जल्द ही इसका असर अन्य खर्चों पर पड़ा और ग्राहकों ने खर्च में कटौती शुरू कर दी. आवश्यक सेवाओं को छोड़कर मॉल और खुदरा व्यापार पर भी ताला पड़ गया. यह झटका शेयर बाजार में बर्बादी की रूप में आया.
शेयर बाजार में उभार तो आया है, लेकिन रिकवरी अभी नहीं हो पायी है. जब अर्थव्यवस्था मुश्किलों में फंसती जा रही है, तो मजबूत राजकोषीय प्रोत्साहन के अलावा अन्य कोई विकल्प भी तो नहीं है. वास्तव में, यही विकल्प दुनिया की मुख्य अर्थव्यवस्थाओं ने भी अपनाया है. सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले अमेरिका ने अपनी राष्ट्रीय आय का 10 प्रतिशत राजकोषीय राहत पैकेज जारी किया है. इसके तहत कामगारों और उनके परिवारों को नकदी सहायता और लघु एवं मध्यम व्यावसायों को उनकी कार्यशील पूंजी के लिए निधि के रूप में सहायता दी जा रही है. साथ ही बैंकों को कर्ज में ढील देने के लिए कहा गया है, वास्तव में सरकार ने डिफॉल्ट के बड़े जोखिम को लिया है, ताकि बैंक साहसी होकर कर्ज देना शुरू करें. ब्रिटेन, जर्मनी और जापान आदि देशों ने भी ऐसे कदम उठाये. चीन ने भी बड़ा प्रोत्साहन पैकेज जारी किया है, यहां तक कि यह एक मात्र देश है, जो पहले से ही रिकवरी के लक्षण दिखा रहा है.
दुर्भाग्य से, यह लिखने तक भारत ने जो राजकोषीय समर्थन दिया है, वह बहुत कम है. वित्तमंत्री ने जिस 1.7 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की है, वह जीडीपी का मात्र 0.8 प्रतिशत ही है. इसका एक बड़ा हिस्सा कोविड से पहले ही बजट में शामिल किया गया था. इसलिए, इस नये राहत पैकेज का असर बहुत सीमित है. हालांकि, मौद्रिक प्रोत्साहन के मामले में भारतीय रिजर्व बैंक का रुख ज्यादा प्रभावी रहा है. आरबीआई ने तेजी से दरों में कटौती है और लंबी अवधि के लिए बैंकों को सस्ते फंड एवं तीन महीने के लिए ब्याज भुगतान में मोहलत की घोषणा की है. लेकिन, बड़ी पहल की दरकार राजकोषीय प्राधिकरणों से है. यहां तक कि राज्य सरकारें भी बड़े समर्थन के लिए कह रही हैं, क्योंकि केंद्र की अनुमति के बगैर वे अपना कर्ज और घाटे को नहीं बढ़ा सकतीं. उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र ने मौजूदा राजकोषीय घाटा सीमा को राज्य जीडीपी के तीन प्रतिशत से बढ़ाकर पांच प्रतिशत करने की अनुमति मांगी है. उसका राजस्व खत्म हो चुका है, खासकर वेतन भुगतान, पेंशन, सामाजिक सेवाओं और ब्याज अदायगी से 23000 करोड़ का खर्च हुआ है. इसमें कोविड-19 नियंत्रण के उपायों के खर्च शामिल नहीं हैं.
केंद्र को जीडीपी के कम-से-कम चार प्रतिशत के बराबर राजकोषीय राहत पैकेज जारी करना चाहिए, जो करीब आठ लाख करोड़ की राशि होगी. यह कामगारों को सीधी नकदी सहायता के साथ छोटे-बड़े व्यावसायों को लंबित भुगतान के रूप में होना चाहिए. यह छोटे उद्यमों को कार्यशील पूंजी समर्थन के रूप में हो, जिससे कि बैंकों को पहले डिफॉल्ट से सुरक्षा मिले. उन सभी कर्जदारों को ब्याज में राहत के तौर पर वित्तीय मदद दी जाये, जिन्हें एनपीए में नहीं डाला गया है, इसमें कर्ज की पांच करोड़ तक की सीमा तय की जा सकती है. देश में 6.3 करोड़ लघु और मध्यम उद्योग हैं, जिन्हें तत्काल मदद की आवश्यकता है. अतिरिक्त उपाय के तौर पर कॉरपोरेट को विलंबित कर भुगतान क्रेडिट, जिसे न्यूनतम वैकल्पिक कर भी कहा जाता है, उसके इस्तेमाल की अनुमति दी जा सकती है. यह अग्रिम टैक्स क्रेडिट 75000 करोड़ तक हो सकता है. केंद्र और राज्यों को जीएसटी दरों में कटौती कर 12 प्रतिशत पर लाने पर विचार करना चाहिए.
आखिर, नीति निर्माताओं को मजबूत राजकोषीय प्रोत्साहन के लिए फैसला करने से कौन रोक रहा है? शायद इसके चार कारण हो सकते हैं- महंगाई बढ़ने का डर, क्रेडिट ह्रास से ब्याज दरों में बढ़ोतरी, मुद्रा अवमूल्यन और देश की रेटिंग गिरने का भय. अब प्रत्येक को जांचते हैं. जब मांग ध्वस्त हो चुकी है और नकदी की कमी है, ऐसे में महंगाई की संभावना काफी कम है. हालांकि, खाद्य महंगाई हो सकती है, लेकिन वह आपूर्ति और लॉजिस्टिक्स की बाधाओं की वजह से हो सकती है. अन्यथा महंगाई का कोई जोखिम नहीं है. बढ़ते राजकोषीय घाटे की वजह से निजी निवेश में आ रही कमी, शायद ही चिंताजनक हो सकती है. निजी पूंजी निवेश में पिछली काफी समय से ठहराव आया हुआ है.
तीसरा, जहां तक मुद्रा के गिरने का मामला है, यह कोई ज्यादा समस्या नहीं है. जब से तेल की कीमतें सबसे निचले स्तर पर पहुंची है, भारत कमजोर और अवमूल्यित मुद्रा को वहन कर सकता है. अंत में, जहां तक रेटिंग एजेंसियों का डर है, दुनियाभर में लगभग हर देश मंदी की चपेट में है, ऐसे में संभावना कम है कि भारत की रेटिंग और नीचे जायेगी. भारत सरकार के अधिकांश ऋण घरेलू हैं और रुपये में हैं, ऐसे में देश की रेटिंग गिरने से सरकारी उधारी दर में ज्यादा कोई असर नहीं पड़ेगा. हालांकि, बाहर से डॉलर में लिये गये ऋण भुगतान में थोड़ी कठिनाई आ सकती है. कुल मिलाकर, चार कारण बड़े राहत पैकेज की राहत में बाधक नहीं बन सकते. अतः हमें मजबूत प्रोत्साहन की दरकार है और अभी यह होना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं)