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Chaitra Navratra 2020: अर्गलास्तोत्र का पाठ करने से देवी होती हैं प्रसन्न ,पढ़ें संपूर्ण “अर्गलास्तोत्रम्”

जीवन में सुख-शांति, मनोवांछित फल तथा यश आदि की प्राप्ति के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ जरूर करना चाहिए. दुर्गा सप्तशती का संपूर्ण पाठ न कर पाने वाले भक्त अगर कीलक स्तोत्रम, देवी कवच या अर्गलास्तोत्र का पाठ कर लेते हैं तो भी देवी दुर्गा उनपर प्रसन्न होकर कृपा करती हैं .

जीवन में सुख-शांति, मनोवांछित फल तथा यश आदि की प्राप्ति के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ जरूर करना चाहिए. दुर्गा सप्तशती का संपूर्ण पाठ न कर पाने वाले भक्त अगर कीलक स्तोत्रम, देवी कवच या अर्गलास्तोत्र का पाठ कर लेते हैं तो भी देवी दुर्गा उनपर प्रसन्न होकर कृपा करती हैं .

श्री दुर्गा सप्तशती में देवी कवच के बाद अर्गला स्तोत्र पढ़ने का विधान है. अर्गला अग्रणी या अगड़ी को कहा जाता है. देवी इसे सुनकर सारी समस्याओं का निवारण करती हैं. इसे पढ़कर भगवती से कामना किया जाता है कि हे मां हमें रूप दो, जय दो, यश दो और सारे शत्रुओं का नाश कर मुझपर अपनी कृपा करो

मनुष्य अपने जीवन में जिन भी कार्यों की अभिलाषा करता है, वे सभी कार्य अर्गला स्तोत्र के पाठ से पूरी हो सकती हैं. देवी कवच के माध्यम से पहले चारों ओर सुरक्षा का घेरा बनाया जाता है और उसके बाद अर्गलास्तोत्र को पढ़कर मां भगवती से विजय की कामना की जाती है. अर्गला स्तोत्र रूप, जय, यश देने वाला मंत्र है. इसे रोजाना पढ़ा जाना चाहिए लेकिन नवरात्रि में इसको पढ़ने का विशेष महत्व है.

अर्गलास्तोत्रम् श्री

माता का ध्यान कर पहले इसे पढ़ें-

श्रीचण्डिकाध्यानम्

ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् .

स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ..

त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् .

पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ..

दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् .

अथवा

या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी

या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी .

शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा

सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ..

अथ अर्गलास्तोत्रम्

ॐ नमश्वण्डिकायै

मार्कण्डेय उवाच

ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतापहारिणि .

जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ।1।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी .

दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते .. ।2।

मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि . ।3।

महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ..।4।

धूम्रनेत्रवधे देवि धर्मकामार्थदायिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।5।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।6।

निशुम्भशुम्भनिर्नाशि त्रिलोक्यशुभदे नमः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. । 7।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।8।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।9।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।10।

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।11।

चण्डिके सततं युद्धे जयन्ति पापनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।12।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।13।

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम् .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।14।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।15।

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।16।

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।17।.

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पनिषूदिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।18।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।19।

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंसुते परमेश्वरि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।20।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ..।21।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।22।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।23।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।24।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. ।25।

तारिणि दुर्गसंसारसागरस्याचलोद्भवे .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ..।26।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः .

सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् .. ।27।

.. इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् .

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