वंदे वांछित लाभाय चंद्रार्धकृत शेखराम् ।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्।।
मैं मनोवांछित लाभ के लिए मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करनेवाली,वृष पर आरुढ़ होनेवाली, शूलधारिणी, यशस्विनी शैलपुत्री दुर्गा की वंदना करता हूं.
चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक को वासंतिक नवरात्र कहा जाता है. नवरात्र के पहले दिन महाशक्ति स्वरूपिणी दुर्गा के पहला स्वरूप शैलपुत्री की पूजा-उपासना की जाती है़ नैवेद्य के रूप में गाय का घी, खीर और पकौड़ी चढ़ाएं. इससे रोगनाश,अविवाहित कन्याओं को योग्य वर,मान-यश-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है.
श्रीमार्कण्डेय पुराणान्तर्गत श्रीदुर्गासप्तशती में भगवती को स्तुति करते हुए देवता कहते हैं—
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ।।
देवि,तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को,कोरोना जैसे महामारी को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो़
जो लोग तुम्हारी शरण में आते हैं, उन पर कभी विपत्ति आती ही नहीं. तुम्हारी शरण में जाने वाला मनुष्य दूसरों को शरण देने का योग्य हो जाते हैं. विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिए समस्त संसार में व्याप्त एक ही तत्व है, वह है देवीतत्व या शक्तितत्व.भगवती, इससे बढ़ कर स्तुति करने के लिए और रखा भी क्या है.
सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत् । अतोअहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम् ।।अर्थात् देवी सर्वरूपमयी है और संपूर्ण जगत देवीमय है. अतः मैं उन विश्वरूपा परमेश्वरी को नमस्कार करता हूं. देव्युपनिषत् में भी इसी प्रकार का वर्णन है.
सभी देवताओं ने देवी के समीप में पहुंच कर पूछा-तुम कौन हो महादेवी़ उत्तर में देवी ने कहा-मैं ब्रह्मस्वरूपिणी हूं, मेरे ही कारण प्रकृति पुरुषात्मक वह जगत है,शून्य और अशून्य भी है, मैं आनंद और आनंदरूपा हूं. मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूं, मुझ में ही ब्रह्म और अब्रह्म समझना चाहिए. मैं विद्या ओर अविद्या हूं. मैं अजा हू,अनजा हूं.
मैं रुद्रों में, आदित्यों में, विश्वदेवों में मैं ही संचरित रहती हूं. मित्र और वरुण, इंद्र, अश्विनी कुमार इन सबको धारण करनेवाली मैं ही हूं. मैं ही विष्णु को,ब्रह्मदेव और प्रजापति को धारण करती हूं.मैं उपासक या याजक यजमान को धन देने वाली हूं.पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूं. यह सारा दृश्य-जगत मैं ही हूं.