अवधेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
awadheshkum@gmail.com
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद डॉ फारूक अब्दुल्ला को हिरासत में लेने तथा उन पर जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) लगाने की जितनी व्यापक चर्चा हुई थी, उतनी उनकी रिहाई की नहीं हो रही है. इससे इंगित होता है कि पांच अगस्त, 2019 और मार्च, 2020 में जम्मू-कश्मीर और उसे लेकर देश का वातावरण काफी बदल चुका है. रिहाई के बाद अब्दुल्ला द्वारा बयान देने में बरती जा रही सतर्कता अवश्य चौंकानेवाली है.
माना जा रहा था कि वे केंद्र सरकार पर हमला करेंगे, जिससे राजनीति नये सिरे से गर्म होगी. किंतु उन्होंने केवल इतना कहा कि अब मैं आजाद हूं. राजनीति के बारे में पूछे गये सवाल पर उनका एक ही जवाब था- उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं की रिहाई तक कोई राजनीतिक बातचीत नहीं होगी. विचार करनेवाली बात है कि आखिर वे इतना संतुलित और संयमित रुख क्यों अपना रहे हैं? क्या उन्होंने जम्मू-कश्मीर के बदले हुए हालात से समझौता कर लिया है? या भविष्य में क्या किया जाये या किया जाना चाहिए, इस प्रश्न को लेकर अभी उनके अंदर कोई निश्चित रूपरेखा नहीं है? या फिर किसी बात का भय है?
जम्मू-कश्मीर की पूरी राजनीति पिछले चार दशकों से अब्दुल्ला और बाद में मुफ्ती परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही है. वे कह रहे हैं कि जल्दबाजी में कोई राजनीतिक कदम नहीं उठायेंगे. संभव है, वे विपक्षी नेताओं से बातचीत के बाद अपने रुख में बदलाव लायें. हालांकि, फारूक अब्दुल्ला को पता है कि भाजपा विरोधी दलों और नेताओं ने जरूर उनकी रिहाई के लिए आवाज उठायी, किंतु राज्य की राजनीति में वे उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते. आखिर उनकी गिरफ्तारी को विपक्ष नहीं रोक सका. ध्यान रहे, उनकी रिहाई के पांच दिन पूर्व राकांपा अध्यक्ष शरद पवार, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा ममता बनर्जी, माकपा प्रमुख सीताराम येचुरी समेत विपक्ष के प्रमुख नेताओं ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को संयुक्त रूप से पत्र लिखकर तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत प्रमुख नेताओं की रिहाई का आग्रह किया था.
यह मानना गलत होगा कि इस पत्र के आधार पर केंद्र ने उनको रिहा किया है. कारण, इसमें विपक्ष ने सरकार पर तीखे हमले भी किया था. इसमें लिखा गया था कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार में लोकतांत्रिक सहमति को आक्रामक प्रशासनिक कार्रवाई द्वारा दबाया जा रहा है, संविधान के बुनियादी सिद्धांतों को जोखिम में डाल दिया गया है तथा लोकतांत्रिक मानदंडों, नागरिकों के मौलिक अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता पर हमले बढ़ रहे हैं. कोई भी सरकार ऐसे आरोपों को तो स्वीकार करेगी नहीं.
खुफिया संस्था रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत ने कहा है कि उन्होंने गृह मंत्रालय से अनुमति लेकर फारूक अब्दुल्ला से मुलाकात की थी. अब्दुल्ला ने उनसे कहा कि वे भारत के प्रति पूरी निष्ठा रखते हैं और अपने बच्चों को भी उन्होंने इसी तरह तैयार किया है तथा उन पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए. दुलत के अनुसार, उन्होंने गृह मंत्रालय द्वारा मुलाकात के बारे में पूछने पर यह सब बताया था.
उनका कहना है कि इसी के बाद अब्दुल्ला को रिहा करने का फैसला हुआ. दुलत के दावे पर कुछ कहना कठिन है, पर उन्होंने मुलाकात की, गृह मंत्रालय ने उन्हें अनुमति दी तथा बाद में उनसे संपर्क किया, यह सच है. केंद्र की ओर से कुछ समय पहले ही बयान आया था कि अब चूंकि हालात सामान्य हो रहे हैं, इसलिए नेताओं को रिहा किया जायेगा. संभव है, हालात की समीक्षा के बाद ऐसा हो भी. सरकार पहले फारूक अब्दुल्ला की रिहाई के प्रभाव का आकलन करेगी, फिर ऐसा करेगी.
वैसे सरकार ने काफी पहले से जम्मू-कश्मीर में लगी पाबंदियों को खत्म करना शुरू कर दिया था. लगभग सभी पाबंदियां हट चुकी हैं. ज्यादातर नेता रिहा हो चुके हैं, हालांकि ऐसे लोगों से एक बॉन्ड भी भरवाया गया है, जिसमें कानून व्यवस्था बहाल करने में सहयोग का भरोसा दिया गया है. बॉन्ड नहीं भरनेवालों को रिहा नहीं किया गया.
बाद में स्थिति बदलने पर धीरे-धीरे रिहाई की प्रक्रिया शुरू हुई. सज्जाद लोन को रिहा तो किया गया, पर उन्हें घर में नजरबंद कर दिया गया. असल में, आरंभिक गिरफ्तारी या हिरासत में लेने के पीछे मूल कारण अशांति की आशंका थी. महबूबा मुफ्ती ने तो कहा था कि अगर कश्मीर से 370 हटा, तो वहां भारत का झंडा उठानेवाला कोई नहीं रहेगा. उमर अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला एवं अन्य नेताओं के बयान भी आक्रामक थे. इनका अपना जनाधार है, इसलिए सरकार ने जोखिम लेने के बजाय गिरफ्तारी का रास्ता चुना.
दरअसल, मोदी सरकार की नीति जम्मू-कश्मीर की परंपरागत राजनीति को बदलने की है. इसलिए हर पार्टी के नेताओं से संपर्क रखने की कोशिश हुई है. बीडीसी चुनाव में भाग लेेने के लिए लोग रिहा हुए और चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. इस नीति का एक भाग पारिवारिक राजनीति को कमजोर करना है. आम धारणा यही है कि अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार अलगाववाद को बढ़ावा देते रहे हैं. दोनों का रिकॉर्ड केंद्र को ब्लैकमेल करने का है. अब्दुल्ला के ऐसे अनेक बयान हैं, जिनमें वे पाकिस्तान की वकालत करते दिखते हैं. साल 2017 में उन्होंने एक बार कह दिया कि पाक-अधिकृत कश्मीर इनके बाप का नहीं है. इससे पूरे देश में गुस्सा पैदा हुआ था. सरकार को इन्हें कमजोर करने में कितनी सफलता मिली है, कहना कठिन है.
पीडीपी टूट चुकी है और महबूबा मुफ्ती के विश्वसनीय साथी माने जानेवाले अल्ताफ बुखारी ने जम्मू-कश्मीर में ‘अपनी पार्टी’ नाम से अलग दल बना लिया है, जो घाटी में एक तीसरी ताकत बन खड़ा हुआ है. मुजफ्फर हुसैन बेग को भी सरकार ने विश्वास में लिया है और उन्हें पद्म सम्मान से सम्मानित किया गया है. छोटे-बड़े कई नेताओं से संपर्क किया गया है. जम्मू में भी भाजपा की कोशिश इन दोनों पार्टियों को तोड़ने की रही है और उसमें कुछ सफलता मिली है. फारूक अब्दुल्ला की रिहाई के पीछे इन कारकों का भी योगदान है. आखिर सरकार को वहां राजनीतिक प्रक्रिया तो शुरू करनी ही है. इन दो परिवारों के वर्चस्व की राजनीति की वापसी न हो, यही केंद्र की कोशिश है. फारूक अब्दुल्ला को भी कुछ अहसास तो है, इसीलिए वे पहले की तरह आक्रामक नहीं हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)